सजल अहमद के 10 लव कोट्स


1) केवल भगवान जानता है कि मैं तुम्हें कितना याद कर रहा हूं। जब आप मुझसे बात नहीं करते हैं, तो मुझे लगता है कि मैं गूंगा था।
1) keval bhagavaan jaanata hai ki main tumhen kitana yaad kar raha hoon. jab aap mujhase baat nahin karate hain, to mujhe lagata hai ki main goonga tha.
2) जब मैं तुम्हें खोने के बारे में सोचता हूं, तो मेरी सांस आती है। मैं तुमसे कितना प्यार करता हूँ, क्या आपको कभी लगता है?
2) jab main tumhen khone ke baare mein sochata hoon, to meree saans aatee hai. main tumase kitana pyaar karata hoon, kya aapako kabhee lagata hai?
3) प्यार का मतलब संक्षारण है, प्यार का मतलब अभिशाप है।

3) pyaar ka matalab sankshaaran hai, pyaar ka matalab abhishaap hai.

4) आप को भूलना मेरे लिए आसान नहीं है,
आपको भूलने से मेरे लिए मृत्यु आसान है।
4) aap ko bhoolana mere lie aasaan nahin hai, aapako bhoolane se mere lie mrtyu aasaan hai.

5) अगर आप किसी को याद करते हैं, तो उसे समझने दो कि आप उसे याद कर रहे हैं। प्यार इसमें गहरा है।
5) agar aap kisee ko yaad karate hain, to use samajhane do ki aap use yaad kar rahe hain. pyaar isamen gahara hai.


6) मुझे तुम्हारी याद आती है, आपके माता-पिता आपको मेरी तरह याद नहीं करते हैं।
6) mujhe tumhaaree yaad aatee hai, aapake maata-pita aapako meree tarah yaad nahin karate hain.

7) अगर आप मुझे मरने के लिए कहते हैं तो मैं मरने के लिए सहमत हूं।
लेकिन अगर आप कहते हैं कि "मुझे भूल जाओ" तो मैं आपको थप्पड़ मार दूंगा।
7) agar aap mujhe marane ke lie kahate hain to main marane ke lie sahamat hoon. lekin agar aap kahate hain ki "mujhe bhool jao" to main aapako thappad maar doonga.

8) प्रेमी प्रेमी से बेहतर हैं!
यदि कोई कुत्ता किसी व्यक्ति के हाथ में भोजन खाता है, तो कुत्ता आसानी से उस व्यक्ति को नहीं भूल सकता है। लेकिन प्रेमी इतने सालों के खर्च के बाद भी, प्रेमी थोड़ी देर के लिए भूल गया।

8) premee premee se behatar hain! yadi koee kutta kisee vyakti ke haath mein bhojan khaata hai, to kutta aasaanee se us vyakti ko nahin bhool sakata hai. lekin premee itane saalon ke kharch ke baad bhee, premee thodee der ke lie bhool gaya.
9) यह कहना आसान है कि "भूल जाओ"
अगर आप आसानी से किसी को भूल सकते हैं, तो "प्यार अवसाद" नहीं होगा।
9) yah kahana aasaan hai ki "bhool jao" agar aap aasaanee se kisee ko bhool sakate hain, to "pyaar avasaad" nahin hoga.
10) प्यार इतना महत्वपूर्ण मुद्दा है। किसी भी समय, किसी भी समय, किसी के लिए, प्यार बहुत जल्द बनाया जा सकता है।

10) pyaar itana mahatvapoorn mudda hai. kisee bhee samay, kisee bhee samay, kisee ke lie, pyaar bahut jald banaaya ja sakata hai.



सजल अहमद के बारे में

31959464_205407836913428_2086603392817299456_o (1).jpgसजल अहमद एक बांग्लादेशी लेखक और छोटे विचारक हैं। २२ जून १९९ ७ को बांग्लादेश के बरीसाल डिवीजन में पैदा हुआ। वह आमतौर पर ऑनलाइन लिखता है। वह एक नोटपैड लेखक है। उनके लेखन विषय हैं; कविताओं, गद्य कविता, गद्य, कहावत और उद्धरण। उनके लेखन बांग्लादेश के ऑनलाइन साहित्य पोर्टल में पाए जाते हैं। वर्तमान में बांग्लादेश के एक सरकारी कॉलेज में, सामाजिक विज्ञान विभाग में डिग्री का अध्ययन। यह लेखक एक कठोर, बेईमान, निर्दयी, विरोधी साम्राज्यवाद है और वह बेहद शत्रुतापूर्ण है। लेखक इस अभ्यास का विरोध नहीं कर रहे थे, कभी-कभी अपमानजनक व्यवहार, इसलिए वह किसी भी दर्शनशास्त्र से बलात्कार करने में संकोच नहीं करता है। वह पूरी तरह से 'सीमाओं' के खिलाफ है। उन्होंने कहा, 'पृथ्वी पर कोई सीमा नहीं होगी। दुनिया में कहीं भी किसी भी स्थान पर कोई बाधा नहीं है, कोई व्यक्ति जा सकता है। जो लोग अलग-अलग बिंदुओं पर सीमा से विभाजित होते हैं, वे नपुंसक हैं। ' यह लेखक पूरी तरह से पीला, बेजोड़ जंकी प्रकृति है। दूसरों से सलाह लेने के उनके नापसंद। पसंदीदा: विकृत गायक, लेखन, चाय आदी, कविता लेखन और पढ़ना आदि पसंदीदा विषय: दर्शन, साहित्य और इतिहास। पसंदीदा व्यक्ति: चार्ल्स बुकोव्स्की, अहमद सोफा, रुमी, इकबाल, नोम चॉम्स्की, मिशेल फाउकॉल्ट, फरहाद मजहर।

Rubiyat Hindi

Rubiyat Hindi
And, as the Cock crew, those who stood before 
The Tavern shouted- 'Open then the Door! 
You know how little while we have to stay, 
And, once departed, may return no more.'


Hindi Translation by Rajnish Manga given below: 


मुर्गे ने जब दी बांग सुन कर हर कोई उठ जाएगा 
दर सराये का खुलेगा जब कोई जोर से चिल्लाएगा 
तुम जानते तो हो यहाँ पर है ठिकाना कितने दिन 
फिर बाद जाने के यहाँ से कौन मुड़ कर आयेगा? 

5 हिंदी की बेहतरीन प्रेम कविताएं

5 हिंदी की बेहतरीन प्रेम कविताएं
किसी ने बताया नहीं था, पर बचपन में ही हमने जान लिया था कि कविताओं में प्रेम का और प्रेम में कविताओं का बड़ा महत्व है. लिखने वाले कलम चलाते हुए कुदरत और क्रांति तक भी पहुंचे, पर ज्यादातर जिंदगियों में पद्य का आगमन बरास्ते प्रेम ही हुआ. होश संभालने के बाद हमने जो पहली कविता लिखी, वह आधी-अधूरी प्रेम कविता ही थी. साहित्य का संभवत: सबसे लाडला विषय प्रेम ही है.

यहां हम अलग-अलग कवियों की 5 श्रेष्ठ प्रेम कविताएं आपके लिए दे रहे हैं, ताकि जिंदगी में रोपा गया और हिंदी में लिखा गया इश्क ढूंढने के लिए आपको ज्यादा गूगल न करना पड़े.

कविता 1: टूटी हुई बिखरी हुई
कवि: शमशेर बहादुर सिंह

टूटी हुई बिखरी हुई चाय की दली हुई पांव के नीचे पत्तियां मेरी कविता

बाल झड़े हुए, मैल से रूखे, गिरे हुए गर्दन से फिर भी चिपके ....कुछ ऐसी मेरी खाल मुझसे अलग सी, मिट्टी में मिली -सी

दोपहर-बाद की धुप-छाओं में खड़ी इंतज़ार की ठेलेगाड़ियाँ जैसे मेरी पसलियां ... खाली बोरे सूजों से रफ़ू किये जा रहे हैं.... जो मेरी आँखों का सूनापन हैं

ठण्ड भी मुस्कराहट लिए हुए है जो की मेरी दोस्त है .

कबूतरों ने एक ग़ज़ल गुनगुनाई... मैं समझ ना सका, रदीफ़ काफिए क्या थे इतना खफिफ़, इतना हल्का, इतना मीठा उनका दर्द था .

आसमान में गंगा की रेत आइने की तरह हिल रही है . मैं उसी में कीचड़ की तरह सो रहा हूं और चमक रहा हूं कहीं... ना जाने कहाँ .

मेरी बांसुरी है एक नाव की पतवार- जिसके स्वर गीले हो गए हैं छप छप छप मेरा ह्रदय कर रहा है छप.छप छप.

वह पैदा हुआ है जो मेरी मृत्यु को सँवारने वाला है . वह दूकान मैंने खोली है जहां "प्वाइज़न" का लेबुल लिए हुए दवाइयां हँसती हैं - उनके इंजेक्शन की चिकोटियों में बड़ा प्रेम है .

वह मुझ पर हंस रही है, जो मेरे होठों पर तलुए के बल खड़ी है मगर उसके बाल मेरी पीठ के नीचे दबे हुए हैं और मेरी पीठ को समय के बारीक तारों की तरह खुरच रहे हैं

उसके चुम्बन की स्पष्ट परछाइयाँ मुहर बनकर उसके तलुओं के ठप्पे से मेरे मुह को कुचल चुकी हैं उसका सीना मुझको पीसकर बराबर कर चुका है .

मुझको प्यास के पहाड़ों पर लिटा दो जहाँ मैं एक झरने की तरह तड़प रहा हूँ . मुझको सूरज की किरणों में जलने दो - ताकि उसकी आंच और लपट में तुम फौव्वारों की तरह नाचो

मुझको जंगली फूलों की तरह ओस से टपकने दो ताकि उनकी दबी हुई खुश्बू से अपने पलकों की उनिन्दी जलन को तुम भिगा सको, मुमकिन है तो.

हां, तुम मुझसे बोलो, जैसे मेरे दरवाजे की शर्माती चूलें सवाल करती हैं बार - बार .... मेरे दिल के अनगिनत कमरों से

हाँ, तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मछलियाँ लहरों से करती हैं ....जिनमें वो फंसने नहीं आती जैसे हवाएं मेरे सीने से करती हैं जिसको गहरे तक दबा नहीं पाती तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मैं तुमसे करता हूं

आइनों, रोशनी में घुल जाओ और आसमान में मुझे लिखो और मुझे पढ़ो . आइनों, मुस्कुराओ और मुझे मार डालो . आइनों, मैं तुम्हारी ज़िन्दगी हूँ

उसमें काटें नहीं थे - सिर्फ एक बहुत काली, बहुत लम्बी जुल्फ थी जो ज़मीन तक साया किये हुए थी.... जहाँ मेरे पांव खो गए थे .

मोतियों को चबाता हुआ सितारों को अपनी कनखियों में घुलाता हुआ, मुझ पर एक ज़िन्दा इत्रपाश बनकर बरस पड़ा .

और तब मैंने देखा की मैं सिर्फ एक साँस हूँ जो उसकी बूंदों में बस गयी है जो तुम्हारे सीनों में फांस की तरह ख्वाब में अटकती होगी, बुरी तरह खटकती होगी

मैं उसके पाओं पर कोई सज़दा ना बन सका क्यूंकि मेरे झुकते ना झुकते उसके पांव की दिशा मेरी आँखों को लेकर खो गई थी .

जब तुम मुझे मिले, एक खुला फटा हुआ लिफाफा तुम्हारे हाथ आया बहुत उल्टा-पल्टा - उसमें कुछ ना था - तुमने उसे फेक दिया - तभी जाकर मैं नीचे पड़ा हुआ तुम्हें 'मैं" लगा . तुम उसे उठाने के लिए झुके भी, पर फिर कुछ सोचकर मुझे वहीँ छोड़ दिया . मैं तुमसे यों ही मिल लिया

मेरी कविता की तुमने खूब दाद दी - मैंने समझा तुम अपनी ही बातें सूना रहे हो . तुमने मेरी कविता की खूब दाद दी

तुमने मुझे जिस रंग में लपेटा, मैं लिपटता गया: और जब लपेट ना खुले - तुमने मुझे जला दिया . मुझे, जलते हुए को भी तुम देखते रहे: और वह मुझे अच्छा लगता रहा .

एक खुश्बू जो मेरी पलकों में इशारों की तरह बस गई है, जैसे तुम्हारे नाम की नन्ही-सी स्पेलिंग हो, छोटी-सी प्यारी सी, तिरछी स्पेलिंग,

आह, तुम्हारे दांतों से जो दूब के तिनके की नोक उस पिकनिक में चिपकी रह गई थी, आज तक मेरी नींद में गड़ती है .

अगर मुझे किसी से इर्ष्या होती तो मैं दूसरा जन्म बार बार हर घंटे लेता जाता: पर मैं तो इसी शरीर में अमर हूँ तुम्हारी बरकत

बहुत से तीर, बहुत सी नावें, बहुत से पर इधर उड़ते हुए आये, घूमते हुए गुज़र गए मुझको लिए सबके सब . तुमने समझा की उनमें तुम थे . नहीं, नहीं, नहीं . उनमें कोई ना था . सिर्फ बीती हुई अनहोनी और होनी की उदास रंगीनियां थीं. फक़त.

*****

कविता 2: प्रेत आएगा
कवि: बद्री नारायण

किताब से निकाल ले जायेगा प्रेमपत्र
गिद्ध उसे पहाड़ पर नोच-नोच खायेगा

चोर आयेगा तो प्रेमपत्र ही चुराएगा
जुआरी प्रेमपत्र ही दांव लगाएगा
ऋषि आयेंगे तो दान में मांगेंगे प्रेमपत्र

बारिश आयेगी तो प्रेमपत्र ही गलाएगी
आग आयेगी तो जलाएगी प्रेमपत्र
बंदिशें प्रेमपत्र ही लगाई जाएंगी

सांप आएगा तो डसेगा प्रेमपत्र
झींगुर आयेंगे तो चाटेंगे प्रेमपत्र
कीड़े प्रेमपत्र ही काटेंगे

प्रलय के दिनों में सप्तर्षि मछली और मनु
सब वेद बचायेंगे
कोई नहीं बचायेगा प्रेमपत्र

कोई रोम बचायेगा कोई मदीना
कोई चांदी बचायेगा कोई सोना

मै निपट अकेला कैसे बचाऊंगा तुम्हारा प्रेमपत्र

*****

कविता/नज़्म 3
शायर: फैज अहमद फैज

वो लोग बहुत खुशकिस्‍मत थे
जो इश्‍क को काम समझते थे
या काम से आशिकी रखते थे
हम जीते जी नाकाम रहे
ना इश्‍क किया ना काम किया
काम इश्‍क में आड़े आता रहा
और इश्‍क से काम उलझता रहा
फिर आखिर तंग आकर हमने
दोनों को अधूरा छोड़ दिया

*****
कविता 4: हाथ
कवि: केदारनाथ सिंह

उसका हाथ
अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा
दुनिया को
हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए.

*****
नज्म 5: कहीं और मिला कर मुझसे
शायर: साहिर लुधियानवी

ताज तेरे लिए इक मज़हर-ए-उलफत ही सही
तुम को इस वादी-ए-रँगीं से अक़ीदत ही सही
मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझसे

बज़्म-ए-शाही में ग़रीबों का गुज़र क्या मानी
सब्त जिस राह पे हों सतवत-ए-शाही के निशाँ
उस पे उलफत भरी रूहों का सफर क्या मानी

मेरी महबूब पस-ए-पर्दा-ए-तशरीर-ए-वफ़ा
तूने सतवत के निशानों को तो देखा होता
मुर्दा शाहों के मक़ाबिर से बहलने वाली,
अपने तारीक़ मक़ानों को तो देखा होता

अनगिनत लोगों ने दुनिया में मुहब्बत की है
कौन कहता है कि सादिक़ न थे जज़्बे उनके
लेकिन उनके लिये तश्शीर का सामान नहीं
क्यूँकि वो लोग भी अपनी ही तरह मुफ़लिस थे

ये इमारत-ओ-मक़ाबिर, ये फ़ासिले, ये हिसार
मुतल-क़ुलहुक्म शहँशाहों की अज़्मत के सुतून
दामन-ए-दहर पे उस रँग की गुलकारी है
जिसमें शामिल है तेरे और मेरे अजदाद का ख़ून

मेरी महबूब! उनहें भी तो मुहब्बत होगी
जिनकी सानाई ने बक़शी है इसे शक़्ल-ए-जमील
उनके प्यारों के मक़ाबिर रहे बेनाम-ओ-नमूद
आज तक उन पे जलाई न किसी ने क़ंदील

ये चमनज़ार ये जमुना का किनारा, ये महल
ये मुनक़्कश दर-ओ-दीवार, ये महराब ये ताक़
इक शहँशाह ने दौलत का सहारा ले कर
हम ग़रीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़
मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझसे

लड़की ने रखी शादी की ऐसी शर्त कि सन्न रह गए ससुरालवाले
जानें, कितनी संपत्ति छोड़ गए हैं अटल बिहारी वाजपेयी, अब किसका होगा अधिकार?
जब वाजपेयी ने कहा था- मैं अविवाहित पर कुंआरा नहीं हूं...
दाऊद को बड़ा झटका, फाइनेंस मैनेजर गिरफ्तार, पाकिस्तानी पासपोर्ट भी बरामद

रचनाकार: कुँवर बेचैन

रचनाकार: कुँवर बेचैन
रचनाकार:
दिल पे मुश्किल है बहुत दिल की कहानी लिखना
जैसे बहते हुए पानी पे हो पानी लिखना
कोई उलझन ही रही होगी जो वो भूल गया
मेरे हिस्से में कोई शाम सुहानी लिखना
आते जाते हुए मौसम से अलग रह के ज़रा
अब के ख़त में तो कोई बात पुरानी लिखना
कुछ भी लिखने का हुनर तुझ को अगर मिल जाए
इश्क़ को अश्कों के दरिया की रवानी लिखना
इस इशारे को वो समझा तो मगर मुद्दत बाद
अपने हर ख़त में उसे रात-की-रानी लिखना
- कुँवर बेचैन

सजल अहमद का कविता: बदला - 3


एक दिन मेरा समय आ जाएगा
मैं बहुत बड़ा हो जाऊंगा!
आपकी बहुत सारी कल्पना खत्म हो गई है!
आप अपने गौरव से अधिक वजन कम करने में सक्षम नहीं होंगे;
हे मेरे प्यारे आप मेरे शब्दों के वजन के साथ मिश्रित हो जाएगा।
मैं आपके फोन को देखकर रिसीवर को 3 बार भी नहीं ले जाऊंगा।
मैं आपका संदेश भी नहीं खोलूंगा।
मुझे अपने बगल में बैठने दो मत
मुझे गले लगाने से प्यार नहीं होगा!
आप रोएंगे और मैं देखूंगा।
आप ऊतक को अपनी आंखों के आँसू हटाने के लिए चाहते हैं,
मैं आपको अपने महंगी ऊतक को छूने नहीं दूँगा।

सजल अहमद के उद्धरण

सजल अहमद के उद्धरण (PICTUREs)










5 कविताएं राष्ट्रकवि दिनकर की


1. कलम, आज उनकी जय बोल
जला अस्थियाँ बारी-बारी
चिटकाई जिनमें चिंगारी,
जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर
लिए बिना गर्दन का मोल
कलम, आज उनकी जय बोल.
जो अगणित लघु दीप हमारे
तूफानों में एक किनारे,
जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन
माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल
कलम, आज उनकी जय बोल.
पीकर जिनकी लाल शिखाएँ
उगल रही सौ लपट दिशाएं,
जिनके सिंहनाद से सहमी
धरती रही अभी तक डोल
कलम, आज उनकी जय बोल.
अंधा चकाचौंध का मारा
क्या जाने इतिहास बेचारा,
साखी हैं उनकी महिमा के
सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल
कलम, आज उनकी जय बोल.

2. हमारे कृषक
जेठ हो कि हो पूस, हमारे कृषकों को आराम नहीं है
छूटे कभी संग बैलों का ऐसा कोई याम नहीं है
मुख में जीभ शक्ति भुजा में जीवन में सुख का नाम नहीं है
वसन कहाँ? सूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं है
बैलों के ये बंधू वर्ष भर क्या जाने कैसे जीते हैं
बंधी जीभ, आँखें विषम गम खा शायद आँसू पीते हैं
पर शिशु का क्या, सीख न पाया अभी जो आँसू पीना
चूस-चूस सूखा स्तन माँ का, सो जाता रो-विलप नगीना
विवश देखती माँ आँचल से नन्ही तड़प उड़ जाती
अपना रक्त पिला देती यदि फटती आज वज्र की छाती
कब्र-कब्र में अबोध बालकों की भूखी हड्डी रोती है
दूध-दूध की कदम-कदम पर सारी रात होती है
दूध-दूध औ वत्स मंदिरों में बहरे पाषान यहाँ है
दूध-दूध तारे बोलो इन बच्चों के भगवान कहाँ हैं
दूध-दूध गंगा तू ही अपनी पानी को दूध बना दे
दूध-दूध उफ कोई है तो इन भूखे मुर्दों को जरा मना दे
दूध-दूध दुनिया सोती है लाऊँ दूध कहाँ किस घर से
दूध-दूध हे देव गगन के कुछ बूँदें टपका अम्बर से
हटो व्योम के, मेघ पंथ से स्वर्ग लूटने हम आते हैं
दूध-दूध हे वत्स! तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं.

3. भारत का यह रेशमी नगर
भारत धूलों से भरा, आंसुओं से गीला, भारत अब भी व्याकुल विपत्ति के घेरे में.
दिल्ली में तो है खूब ज्योति की चहल-पहल, पर, भटक रहा है सारा देश अँधेरे में.
रेशमी कलम से भाग्य-लेख लिखनेवालों, तुम भी अभाव से कभी ग्रस्त हो रोये हो?
बीमार किसी बच्चे की दवा जुटाने में, तुम भी क्या घर भर पेट बांधकर सोये हो?
असहाय किसानों की किस्मत को खेतों में, कया जल मे बह जाते देखा है?
क्या खाएंगे? यह सोच निराशा से पागल, बेचारों को नीरव रह जाते देखा है?
देखा है ग्रामों की अनेक रम्भाओं को, जिन की आभा पर धूल अभी तक छायी है?
रेशमी देह पर जिन अभागिनों की अब तक रेशम क्या? साड़ी सही नहीं चढ़ पायी है.
पर तुम नगरों के लाल, अमीरों के पुतले, क्यों व्यथा भाग्यहीनों की मन में लाओगे?
जलता हो सारा देश, किन्तु, होकर अधीर तुम दौड़-दौड़कर क्यों यह आग बुझाओगे?
चिन्ता हो भी क्यों तुम्हें, गांव के जलने से, दिल्ली में तो रोटियां नहीं कम होती हैं
धुलता न अश्रु-बुंदों से आंखों से काजल, गालों पर की धूलियां नहीं नम होती हैं.
जलते हैं तो ये गांव देश के जला करें, आराम नयी दिल्ली अपना कब छोड़ेगी?
या रक्खेगी मरघट में भी रेशमी महल, या आंधी की खाकर चपेट सब छोड़ेगी.

4. परशुराम की प्रतीक्षा
हे वीर बन्धु ! दायी है कौन विपद का ?
हम दोषी किसको कहें तुम्हारे वध का ?
यह गहन प्रश्न; कैसे रहस्य समझायें ?
दस-बीस अधिक हों तो हम नाम गिनायें।
पर, कदम-कदम पर यहाँ खड़ा पातक है,
हर तरफ लगाये घात खड़ा घातक है।
घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है,
लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है,
जिस पापी को गुण नहीं; गोत्र प्यारा है,
समझो, उसने ही हमें यहाँ मारा है।
जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है,
या किसी लोभ के विवश मूक रहता है,
उस कुटिल राजतन्त्री कदर्य को धिक् है,
यह मूक सत्यहन्ता कम नहीं वधिक है।
चोरों के हैं जो हितू, ठगों के बल हैं,
जिनके प्रताप से पलते पाप सकल हैं,
जो छल-प्रपंच, सब को प्रश्रय देते हैं,
या चाटुकार जन से सेवा लेते हैं;
यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है,
भारत अपने घर में ही हार गया है।
है कौन यहाँ, कारण जो नहीं विपद् का ?
किस पर जिम्मा है नहीं हमारे वध का ?
जो चरम पाप है, हमें उसी की लत है,
दैहिक बल को रहता यह देश ग़लत है.
नेता निमग्न दिन-रात शान्ति-चिन्तन में,
कवि-कलाकार ऊपर उड़ रहे गगन में.
यज्ञाग्नि हिन्द में समिध नहीं पाती है,
पौरुष की ज्वाला रोज बुझी जाती है.
ओ बदनसीब अन्धो ! कमजोर अभागो ?
अब भी तो खोलो नयन, नींद से जागो.
वह अघी, बाहुबल का जो अपलापी है,
जिसकी ज्वाला बुझ गयी, वही पापी है.
जब तक प्रसन्न यह अनल, सुगुण हँसते है;
है जहाँ खड्ग, सब पुण्य वहीं बसते हैं.
वीरता जहाँ पर नहीं, पुण्य का क्षय है,
वीरता जहाँ पर नहीं, स्वार्थ की जय है.
तलवार पुण्य की सखी, धर्मपालक है,
लालच पर अंकुश कठिन, लोभ-सालक है.
असि छोड़, भीरु बन जहाँ धर्म सोता है,
पातक प्रचण्डतम वहीं प्रकट होता है.
तलवारें सोतीं जहाँ बन्द म्यानों में,
किस्मतें वहाँ सड़ती है तहखानों में.
बलिवेदी पर बालियाँ-नथें चढ़ती हैं,
सोने की ईंटें, मगर, नहीं कढ़ती हैं.
पूछो कुबेर से, कब सुवर्ण वे देंगे ?
यदि आज नहीं तो सुयश और कब लेंगे ?
तूफान उठेगा, प्रलय-वाण छूटेगा,
है जहाँ स्वर्ण, बम वहीं, स्यात्, फूटेगा.
जो करें, किन्तु, कंचन यह नहीं बचेगा,
शायद, सुवर्ण पर ही संहार मचेगा।
हम पर अपने पापों का बोझ न डालें,
कह दो सब से, अपना दायित्व सँभालें.
कह दो प्रपंचकारी, कपटी, जाली से,
आलसी, अकर्मठ, काहिल, हड़ताली से,
सी लें जबान, चुपचाप काम पर जायें,
हम यहाँ रक्त, वे घर में स्वेद बहायें.
हम दें उस को विजय, हमें तुम बल दो,
दो शस्त्र और अपना संकल्प अटल दो.
हों खड़े लोग कटिबद्ध वहाँ यदि घर में,
है कौन हमें जीते जो यहाँ समर में ?
हो जहाँ कहीं भी अनय, उसे रोको रे !
जो करें पाप शशि-सूर्य, उन्हें टोको रे !
जा कहो, पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में,
या आग सुलगती रही प्रजा के मन में;
तामस बढ़ता यदि गया ढकेल प्रभा को,
निर्बन्ध पन्थ यदि मिला नहीं प्रतिभा को,
रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा,
अपने घर में ही फिर स्वदेश हारेगा.

5. समर शेष है....
ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो ,
किसने कहा, युद्ध की वेला चली गयी, शांति से बोलो?
किसने कहा, और मत वेधो ह्रदय वह्रि के शर से,
भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?
कुंकुम? लेपूं किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान?
तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान.
फूलों के रंगीन लहर पर ओ उतरनेवाले !
ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले!
सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है,
दिल्ली में रौशनी, शेष भारत में अंधियाला है .
मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार,
ज्यों का त्यों है खड़ा, आज भी मरघट-सा संसार .
वह संसार जहाँ तक पहुँची अब तक नहीं किरण है
जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है
देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है
माँ को लज्ज वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है
पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज
सात वर्ष हो गये राह में, अटका कहाँ स्वराज?
अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?
तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?
सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में
समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा
और नहीं तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगा
समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा
जिसका है ये न्यास उसे सत्वर पहुँचाना होगा
धारा के मग में अनेक जो पर्वत खडे हुए हैं
गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अडे हुए हैं
कह दो उनसे झुके अगर तो जग मे यश पाएंगे
अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाऐंगे
समर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दो
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो
पथरीली ऊँची जमीन है? तो उसको तोडेंगे
समतल पीटे बिना समर कि भूमि नहीं छोड़ेंगे
समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर
खण्ड-खण्ड हो गिरे विषमता की काली जंजीर
समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं
गांधी का पी रुधिर जवाहर पर फुंकार रहे हैं
समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है
समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल
विचरें अभय देश में गाँधी और जवाहर लाल
तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना
सावधान हो खडी देश भर में गाँधी की सेना
बलि देकर भी बलि! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे
मंदिर औ' मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध.

आधुनिक काल के कवि में प्रकाशित किया गया


रामधारी सिंह दिनकर (१९०८-१९७४)
रामधारी सिंह दिनकर स्वतंत्रता पूर्व के विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रकवि के नाम से जाने जाते रहे। वे छायावादोत्तर कवियों  की पहली पीढ़ी के कवि थे। एक ओर उनकी कविताओ में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रांति की पुकार है, तो दूसरी ओर कोमल श्रृँगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। इन्हीं दो प्रवृत्तियों का चरम उत्कर्ष हमें कुरूक्षेत्र और उवर्शी में मिलता है।
आपका जन्म ३० सितंबर १९०८ को सिमरिया, मुंगेर, बिहार में हुआ था। पटना विश्वविद्यालय से बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक विद्यालय में अध्यापक हो गए। १९३४ से १९४७ तक बिहार सरकार की सेवा में सब-रजिस्टार और प्रचार विभाग के उपिनदेशक पदों पर कार्य किया। १९५० से १९५२ तक मुजफ्फरपुर कालेज में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे, भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति के पद पर कार्य किया और इसके बाद भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार बने।उपाधि पदमविभूषण से अलंकृत किया गया। आपकी पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय के लिये आपको साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा उर्वशी के लिये भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कर प्रदान किये गए।
२४ अप्रैल १९७४ को दिनकर जी का स्वर्गवास हुआ। अपनी लेखनी के माध्यम से वह सदा अमर रहेंगे।
प्रमुख कृतियां:
गद्य रचनाएं: मिट्टी की ओर, रेती के फूल, वेणुवन, साहित्यमुखी, काव्य की भूमिका, प्रसाद पंत और मैथिलीशरणगुप्त, संस्कृति के चार अध्याय। पद्य रचनाएं: रेणुका, हुंकार, रसवंती, कुरूक्षेत्र, रश्मिरथी , परशुराम की प्रतिज्ञा, उर्वशी, हारे को हरिनाम ।

बाबा नागार्जुन
बाबा नागार्जुन
बाबा नागार्जुन को भावबोध और कविता के मिज़ाज के स्तर पर सबसे अधिक निराला और कबीर के साथ जोड़कर देखा गया है. वैसे, यदि जरा और व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो नागार्जुन के काव्य में अब तक की पूरी भारतीय काव्य-परंपरा ही जीवंत रूप में उपस्थित देखी जा सकती है. उनका कवि-व्यक्तित्व कालिदास और विद्यापति जैसे कई कालजयी कवियों के रचना-संसार के गहन अवगाहन, बौद्ध एवं मार्क्सवाद जैसे बहुजनोन्मुख दर्शन के व्यावहारिक अनुगमन तथा सबसे बढ़कर अपने समय और परिवेश की समस्याओं, चिन्ताओं एवं संघर्षों से प्रत्यक्ष जुड़ाव तथा लोकसंस्कृति एवं लोकहृदय की गहरी पहचान से निर्मित है. उनका ‘यात्रीपन’ भारतीय मानस एवं विषय-वस्तु को समग्र और सच्चे रूप में समझने का साधन रहा है. मैथिली, हिन्दी और संस्कृत के अलावा पालि, प्राकृत, बांग्ला, सिंहली, तिब्बती आदि अनेकानेक भाषाओं का ज्ञान भी उनके लिए इसी उद्देश्य में सहायक रहा है. उनका गतिशील, सक्रिय और प्रतिबद्ध सुदीर्घ जीवन उनके काव्य में जीवंत रूप से प्रतिध्वनित-प्रतिबिंबित है. नागार्जुन सही अर्थों में भारतीय मिट्टी से बने आधुनिकतम कवि हैं.
बाबा नागार्जुन ने जब लिखना शुरू किया था तब हिन्दी साहित्य में छायावाद उस चरमोत्कर्ष पर था, जहाँ से अचानक तेज ढलान शुरू हो जाती है, और जब उन्होंने लिखना बंद किया तब काव्य जगत में सभी प्रकार के वादों के अंत का दौर चल रहा था. बाबा अपने जीवन और सर्जन के लंबे कालखंड में चले सभी राजनीतिक एवं साहित्यिक वादों के साक्षी रहे, कुछ से संबद्ध भी हुए, पर आबद्ध वह किसी से नहीं रहे. उनके राजनीतिक ‘विचलनों’ की खूब चर्चा भी हुई. पर कहने की जरूरत नहीं कि उनके ये तथाकथित ‘विचलन’ न सिर्फ जायज थे बल्कि जरूरी भी थे. वह जनता की व्यापक राजनीतिक आकांक्षा से जुड़े कवि थे, न कि मात्र राजनीतिक पार्टियों के संकीर्ण दायरे में आबद्ध सुविधाजीवी कामरेड. कोई राजनीतिक पार्टी जब जनता की राजनीतिक आकांक्षा की पूर्ति के मार्ग से विचलित हो जाए तो उस राजनीतिक पार्टी से ‘विचलित’ हो जाना विवेक का सूचक है, न कि ‘विपथन’ का. प्रो. मैनेजर पांडेय ने सही टिप्पणी की है कि
एक जनकवि के रूप में नागार्जुन खुद को जनता के प्रति जवाबदेह समझते हैं, किसी राजनीतिक दल के प्रति नहीं. इसलिए जब वे साफ ढंग से सच कहते हैं तो कई बार वामपंथी दलों के राजनीतिक और साहित्यिक नेताओं को भी नाराज करते हैं. जो लोग राजनीति और साहित्य में सुविधा के सहारे जीते हैं वे दुविधा की भाषा बोलते हैं. नागार्जुन की दृष्टि में कोई दुविधा नहीं है…..यही कारण है कि खतरनाक सच साफ बोलने का वे खतरा उठाते हैं.
अपनी एक कविता “प्रतिबद्ध हूँ” में उन्होंने दो टूक लहजे में अपनी दृष्टि को स्पष्ट किया है-
प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ, प्रतिबद्ध हूँ-
बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त-
संकुचित ‘स्व’ की आपाधापी के निषेधार्थ
अविवेकी भीड़ की ‘भेड़िया-धसान’ के खिलाफ
अंध-बधिर ‘व्यक्तियों’ को सही राह बतलाने के लिए
अपने आप को भी ‘व्यामोह’ से बारंबार उबारने की खातिर
प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ, शतधा प्रतिबद्ध हूँ!
नागार्जुन का संपूर्ण काव्य-संसार इस बात का प्रमाण है कि उनकी यह प्रतिबद्धता हमेशा स्थिर और अक्षुण्ण रही, भले ही उन्हें विचलन के आरोपों से लगातार नवाजा जाता रहा. उनके समय में छायावाद, प्रगतिवाद, हालावाद, प्रयोगवाद, नयी कविता, अकविता, जनवादी कविता और नवगीत आदि जैसे कई काव्य-आंदोलन चले और उनमें से ज्यादातर कुछ काल तक सरगर्मी दिखाने के बाद चलते बने. पर बाबा की कविता इनमें से किसी ‘चौखटे’ में अँट कर नहीं रही, बल्कि हर ‘चौखटे’ को तोड़कर आगे का रास्ता दिखाती रही. उनके काव्य के केन्द्र में कोई ‘वाद’ नहीं रहा, बजाय इसके वह हमेशा अपने काव्य-सरोकार ‘जन’ से ग्रहण करते रहे. उन्होंने किसी बँधी-बँधायी लीक का निर्वाह नहीं किया, बल्कि अपने काव्य के लिए स्वयं की लीक का निर्माण किया. इसीलिए बदलते हुए भावबोध के बदलते धरातल के साथ नागार्जुन को विगत सात दशकों की अपनी काव्य-यात्रा के दौरान अपनी कविता का बुनियादी भाव-धरातल बदलने की जरूरत महसूस नहीं हुई. “पछाड़ दिया मेरे आस्तिक ने” जैसी कविता में ‘बाबा का काव्यात्मक डेविएशन’ भी सामान्य जनोचित है और असल में, वही उस कविता के विशिष्ट सौंदर्य का आधार भी है. उनकी वर्ष 1939 में प्रकाशित आरंभिक दिनों की एक कविता ‘उनको प्रणाम’ में जो भाव-बोध है, वह वर्ष 1998 में प्रकाशित उनके अंतिम दिनों की कविता ‘अपने खेत में’ के भाव-बोध से बुनियादी तौर पर समान है. आज इन दोनों कविताओं को एक साथ पढ़ने पर, यदि उनके प्रकाशन का वर्ष मालूम न हो तो यह पहचानना मुश्किल होगा कि उनके रचनाकाल के बीच तकरीबन साठ वर्षों का फासला है. जरा इन दोनों कविताओं की एक-एक बानगी देखें-
जो नहीं हो सके पूर्ण-काम
मैं उनको करता हूँ प्रणाम
जिनकी सेवाएँ अतुलनीय
पर विज्ञापन से रहे दूर
प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके
कर दिए मनोरथ चूर-चूर!
– उनको प्रणाम!
और ‘अपने खेत में’ कविता का यह अंश देखें-
अपने खेत में हल चला रहा हूँ
इन दिनों बुआई चल रही है
इर्द-गिर्द की घटनाएँ ही
मेरे लिए बीज जुटाती हैं
हाँ, बीज में घुन लगा हो तो
अंकुर कैसे निकलेंगे!
जाहिर है
बाजारू बीजों की
निर्मम छँटाई करूँगा
खाद और उर्वरक और
सिंचाई के साधनों में भी
पहले से जियादा ही
चौकसी बरतनी है
मकबूल फिदा हुसैन की
चौंकाऊ या बाजारू टेकनीक
हमारी खेती को चौपट
कर देगी!
जी, आप
अपने रूमाल में
गाँठ बाँध लो, बिल्कुल!!
बाबा की कविताएँ अपने समय के समग्र परिदृश्य की जीवंत एवं प्रामाणिक दस्तावेज हैं. उदय प्रकाश ने सही संकेत किया है कि बाबा नागार्जुन की कविताएँ प्रख्यात इतिहास चिंतक डी.डी. कोसांबी की इस प्रस्थापना का कि ‘इतिहास लेखन के लिए काव्यात्मक प्रमाणों को आधार नहीं बनाया जाना चाहिए’ अपवाद सिद्ध होती हैं. वह कहते हैं कि ‘हम उनकी रचनाओं के प्रमाणों से अपने देश और समाज के पिछले कई दशकों के इतिहास का पुनर्लेखन कर सकते हैं.’ कहने की जरूरत नहीं कि इस तरह का दावा बीसवीं सदी के किसी भी दूसरे हिन्दी कवि के संबंध में नहीं किया जा सकता, स्वयं निराला के संबंध में भी निश्चिंत होकर नहीं. बाबा को अपनी बात कहने के लिए कभी आड़ की जरूरत नहीं पड़ी और उन्होंने जो कुछ कहा है उसका संदर्भ सीधे-सीधे वर्तमान से लिया है. उनकी कविता कोई बात घुमाकर नहीं कहती, बल्कि सीधे-सहज ढंग से कह जाती है. उनके अलावा, आधुनिक हिन्दी साहित्य में इस तरह की विशेषता केवल गद्य-विधा के दो शीर्षस्थ लेखकों, आजादी से पूर्व के दौर में प्रेमचन्द और आजादी के बाद के दौर में हरिशंकर परसाई, में रेखांकित की जा सकती है. बाबा की कविताओं में यह खासियत इसीलिए भी आई है कि उनका काव्य-संघर्ष उनके जीवन-संघर्ष से तदाकार है और दोनों के बीच किसी ‘अबूझ-सी पहेली’ का पर्दा नहीं लटका है मुक्तिबोध की कविताओं के विचार-धरातल की तरह. उनका संघर्ष अंतर्द्वंद्व, कसमसाहट और अनिश्चितता भरा संघर्ष नहीं है, बल्कि खुले मैदान का, निर्द्वन्द्व, आर-पार का खुला संघर्ष है और इस संघर्ष के समूचे घटनाक्रम को बाबा मानो अपनी डायरी की तरह अपनी कविताओं में दर्ज करते गए हैं.
बाबा ने अपनी कविताओं का भाव-धरातल सदा सहज और प्रत्यक्ष यथार्थ रखा, वह यथार्थ जिससे समाज का आम आदमी रोज जूझता है. यह भाव-धरातल एक ऐसा धरातल है जो नाना प्रकार के काव्य-आंदोलनों से उपजते भाव-बोधों के अस्थिर धरातल की तुलना में स्थायी और अधिक महत्वपूर्ण है. हालाँकि उनकी कविताओं की ‘तात्कालिकता’ के कारण उसे अखबारी कविता कहकर खारिज करने की कोशिशें भी हुई हैं, लेकिन असल में, यदि एजरा पाउंड के शब्दों में कहें तो नागार्जुन की कविता ऐसी ख़बर (news) है जो हमेशा ताज़ा (new) ही रहती है. वह अखबारी ख़बर की तरह कभी बासी नहीं होती. उनकी कविता के इस ‘टटकेपन’ का कारण बकौल नामवर सिंह ‘व्यंग्य की विदग्धता’ है. नामवर सिंह कहते हैं-
व्यंग्य की इस विदग्धता ने ही नागार्जुन की अनेक तात्कालिक कविताओं को कालजयी बना दिया है, जिसके कारण वे कभी बासी नहीं हुईं और अब भी तात्कालिक बनी हुई हैं…..इसलिए यह निर्विवाद है कि कबीर के बाद हिन्दी कविता में नागार्जुन से बड़ा व्यंग्यकार अभी तक कोई नहीं हुआ. नागार्जुन के काव्य में व्यक्तियों के इतने व्यंग्यचित्र हैं कि उनका एक विशाल अलबम तैयार किया जा सकता है.
दरअसल, नागार्जुन की कविताओं को अख़बारी कविता कहने वाले शायद यह समझ ही नहीं पाते कि उनकी तात्कालिकता में ही उनके कालजयी होने का राज छिपा हुआ है और वह राज यह है कि तात्कालिकता को ही उन कविताओं में रचनात्मकता का सबसे बड़ा हथियार बनाया गया है. उनकी कई प्रसिद्ध कविताएँ जैसे कि ‘इंदुजी, इंदुजी क्या हुआ
आपको‘, ‘आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी‘, ‘अब तो बंद करो हे देवी यह चुनाव का प्रहसन‘ और ‘तीन दिन, तीन रात‘ आदि इसका बेहतरीन प्रमाण हैं. असल में, बात यह है कि नागार्जुन की कविता, जैसा कि कई अन्य महान रचनाकारों की रचनाओं के संबंध में भी कहा गया है, आम पाठकों के लिए सहज है, मगर विद्वान आलोचकों के लिए उलझन में डालने वाली हैं. ये कविताएँ जिनको संबोधित हैं उनको तो झट से समझ में आ जाती हैं, पर कविता के स्वनिर्मित प्रतिमानों से लैस पूर्वग्रही आलोचकों को वह कविता ही नहीं लगती. ऐसे आलोचक उनकी कविताओं को अपनी सुविधा के लिए तात्कालिक राजनीति संबंधी, प्रकृति संबंधी और सौंदर्य-बोध संबंधी आदि जैसे कई खाँचों में बाँट देते हैं और उनमें से कुछ को स्वीकार करके बाकी को खारिज कर देना चाहते हैं. वे उनकी सभी प्रकार की कविताओं की एक सर्वसामान्य भावभूमि की तलाश ही नहीं कर पाते, क्योंकि उनकी आँखों पर स्वनिर्मित प्रतिमानों से बने पूर्वग्रह की पट्टी बँधी होती है.
बाबा के लिए कवि-कर्म कोई आभिजात्य शौक नहीं, बल्कि ‘खेत में हल चलाने’ जैसा है. वह कविता को रोटी की तरह जीवन के लिए अनिवार्य मानते हैं. उनके लिए सर्जन और अर्जन में भेद नहीं है. इसलिए उनकी कविता राजनीति, प्रकृति और संस्कृति, तीनों को समान भाव से अपना उपजीव्य बनाती है. उनकी प्रेम और प्रकृति संबंधी कविताएँ उसी तरह भारतीय जनचेतना से जुड़ती हैं जिस तरह से उनकी राजनीतिक कविताएँ. बाबा नागार्जुन, कई अर्थों में, एक साथ सरल और बीहड़, दोनों तरह के कवि हैं. यह विलक्षणता भी कुछ हद तक निराला के अलावा बीसवीं सदी के शायद ही किसी अन्य हिन्दी कवि में मिलेगी! उनकी बीहड़ कवि-दृष्टि रोजमर्रा के ही उन दृश्यों-प्रसंगों के जरिए वहाँ तक स्वाभाविक रूप से पहुँच जाती है, जहाँ दूसरे कवियों की कल्पना-दृष्टि पहुँचने से पहले ही उलझ कर रह जाए! उनकी एक कविता ‘पैने दाँतोंवाली’ की ये पंक्तियाँ देखिए-
धूप में पसरकर लेटी है
मोटी-तगड़ी, अधेड़, मादा सुअर…
जमना-किनारे
मखमली दूबों पर
पूस की गुनगुनी धूप में
पसरकर लेटी है
वह भी तो मादरे हिंद की बेटी है
भरे-पूरे बारह थनोंवाली!
यों, बीहड़ता कई दूसरे कवियों में भी है, पर इतनी स्वाभाविक कहीं नहीं है. यह नागार्जुन के कवि-मानस में ही संभव है जहाँ सरलता और बीहड़ता, दोनों एक-दूसरे के इतने साथ-साथ उपस्थित हैं. इसी के साथ उनकी एक और विशेषता भी उल्लेखनीय है, जिसे डॉ. रामविलास शर्मा ने सही शब्दों में रेखांकित करते हुए कहा है-
नागार्जुन ने लोकप्रियता और कलात्मक सौंदर्य के संतुलन और सामंजस्य की समस्या को जितनी सफलता से हल किया है, उतनी सफलता से बहुत कम कवि-हिन्दी से भिन्न भाषाओं में भी-हल कर पाए हैं.
बाबा की कविताओं की लोकप्रियता का तो कहना ही क्या! बाबा उन विरले कवियों में से हैं जो एक साथ कवि-सम्मेलन के मंचों पर भी तालियाँ बटोरते रहे और गंभीर आलोचकों से भी समादृत होते रहे. बाबा के इस जादुई कमाल के बारे में खुद उन्हीं की जुबानी यह दिलचस्प उद्धरण सुनिए-
कवि-सम्मेलनों में बहुत जमते हैं हम. समझ गए ना? बहुत विकट काम है कवि-सम्मेलन में कविता सुनाना. बड़े-बड़ों को, तुम्हारा, क्या कहते हैं, हूट कर दिया जाता है. हम कभी हूट नहीं हुए. हर तरह का माल रहता है, हमारे पास. यह नहीं जमेगा, वह जमेगा. काका-मामा सबकी छुट्टी कर देते हैं हम….. समझ गए ना?
उनकी एक अत्यंत प्रसिद्ध कविता ‘अकाल और उसके बाद’ लोकप्रियता और कलात्मक सौंदर्य के मणिकांचन संयोग का एक उल्लेखनीय उदाहरण है.
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त.
दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन के ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद.
इस तरह की बाबा की दर्जनों खूबसूरत कविताएँ हैं जो इस दृष्टि से उनके समकालीन तमाम कवियों की कविताओं से विशिष्ट कही जा सकती हैं. कलात्मक सौंदर्य की कविताएँ शमशेर ने भी खूब लिखी हैं, पर वे लोकप्रिय नहीं हैं. लोकप्रिय कविताएँ धूमिल की भी हैं पर उनमें कलात्मक सौंदर्य का वह स्तर नहीं है जो नागार्जुन की कविताओं में है. बाबा की कविताओं में आखिर यह विलक्षण विशेषता आती कहाँ से है? दरअसल, बाबा की प्राय: सभी कविताएँ संवाद की कविताएँ हैं और यह संवाद भी एकहरा और सपाट नहीं है. वह हजार-हजार तरह से संवाद करते हैं अपनी कविताओं में. आज कविता के संदर्भ में संप्रेषण की जिस समस्या पर इतनी चिंता जताई जा रही है, वैसी कोई समस्या बाबा की कविताओं को व्यापती ही नहीं. सुप्रसिद्ध समकालीन कवि केदारनाथ सिंह स्पष्ट रूप से स्वीकार करते हैं:
स्वाधीनता के बाद के कवियों में यह विशेषता केवल नागार्जुन के यहाँ दिखाई पड़ती है….यह बात दूसरे प्रगतिशील कवियों के संदर्भ में नहीं कही जा सकती.
बाबा की कविताओं की इसी विशेषता के एक अन्य कारण की चर्चा करते हुए केदारनाथ सिंह कहते हैं कि बाबा अपनी कविताओं में ‘बहुत से लोकप्रिय काव्य-रूपों को अपनाते हैं और उन्हें सीधे जनता के बीच से ले आते हैं.’ उनकी ‘मंत्र कविता’ देहातों में झाड़-फूँक करके उपचार करने वाले ओझा की शैली में है.
ओं भैरो, भैरो, भैरो, ओं बजरंगबली
ओं बंदूक का टोटा, पिस्तौल की नली
ओं डालर, ओं रूबल, ओं पाउंड
ओं साउंड, ओं साउंड, ओं साउंडओम् ओम् ओम्
ओम् धरती, धरती, धरती, व्योम् व्योम व्योम्
ओं अष्टधातुओं की ईंटों के भट्ठे
ओं महामहिम, महामहो, उल्लू के पट्ठे
ओं दुर्गा दुर्गा दुर्गा तारा तारा तारा
ओं इसी पेट के अंदर समा जाए सर्वहारा
हरि: ओं तत्सत् हरि: ओं तत्सत्
भाषा पर बाबा का गज़ब अधिकार है। देसी बोली के ठेठ शब्दों से लेकर संस्कृतनिष्ठ शास्त्रीय पदावली तक उनकी भाषा के अनेकों स्तर हैं। उन्होंने तो हिन्दी के अलावा मैथिली, बांग्ला और संस्कृत में अलग से बहुत लिखा है। जैसा पहले भाव-बोध के संदर्भ में कहा गया, वैसे ही भाषा की दृष्टि से भी यह कहा जा सकता है कि बाबा की कविताओं में कबीर से लेकर धूमिल तक की पूरी हिन्दी काव्य-परंपरा एक साथ जीवंत है। बाबा ने छंद से भी परहेज नहीं किया, बल्कि उसका अपनी कविताओं में क्रांतिकारी ढंग से इस्तेमाल करके दिखा दिया। बाबा की कविताओं की लोकप्रियता का एक आधार उनके द्वारा किया गया छंदों का सधा हुआ चमत्कारिक प्रयोग भी है। उनकी मशहूर कविता “आओ रानी, हम ढोएँगे पालकी” की ये पंक्तियाँ देखिए:
यह तो नई–नई दिल्ली है, दिल में इसे उतार लो
एक बात कह दूँ मलका, थोड़ी–सी लाज
उधार लो
बापू को मत छेड़ो, अपने पुरखों से उपहार लो
जय ब्रिटेन की जय हो इस कलिकाल की!
आओ रानी, हम ढोएँगे पालकी!
रफ़ू करेंगे फटे–पुराने जाल की!
यही हुई है राय जवाहरलाल की!
आओ रानी, हम ढोएँगे पालकी!
नागार्जुन की भाषा और उनके छंद मौके के अनुरूप बड़े कलात्मक ढंग से बदल जाया करते हैं। यदि हम अज्ञेय, शमशेर या मुक्तिबोध की कविताओं को देखें तो उनमें भाषा इस कदर बदलती नहीं है। ये कवि अपने प्रयोग प्रतीकों और बिम्बों के स्तर पर करते हैं, भाषा की जमीन के स्तर पर नहीं। उनके समकालीन कवि त्रिलोचन शास्त्री ने मुक्तिबोध और नागार्जुन की कविताओं की तुलना करते हुए एक बार कहा था-
मुक्तिबोध की कविताओं का अनुवाद
अंग्रेजी या यूरोप की दूसरी भाषाओं में
करना ज्यादा आसान है, क्योंकि उसकी
भाषा भले भारतीय है, पर उसमें मानसिकता
का प्रभाव पश्चिम से आता है; लेकिन
नागार्जुन की कविताओं का यूरोपीय
भाषाओं में अनुवाद बहुत कठिन होगा। यदि
ऐसी कोशिश भी हो तो तीन–चार
पंक्तियों के अनुवाद के बाद ‘फुटनोट‘ से पूरा
पन्ना भरना पड़ेगा।
यही असल में बाबा की कविताओं के ठेठ भारतीय और मौलिक धरातल की पहचान है, जो उन्हें अपने समकालीन दौर के कई प्रमुख कवियों-जैसे अज्ञेय, शमशेर और मुक्तिबोध से अलग भाव-भूमि पर प्रतिष्ठित करता है। इसी से जुड़ी एक बात और। ये कवि मुख्य रूप से साहित्य के आंदोलनों से, वह भी पश्चिम-प्रेरित आंदोलनों से प्रभावित होकर कविता करते रहे, जबकि नागार्जुन भारतीय जनता के आंदोलनों से प्रेरित और प्रभावित होकर, या यों कहें कि उनमें शामिल होकर कविता करते रहे हैं। बाबा भले ही वामपंथी विचारधारा से जुड़े थे, परंतु उनकी यह विचारधारा भी नितांत रूप से भारतीय जनाकांक्षा से जुड़ी हुई थी। यही कारण है कि वर्ष 1962 और 1975 में जब अधिकांश भारतीय ‘कम्यूनिस्ट’ रहस्यमय चुप्पी साधकर बैठे रहे थे, तब बाबा ने उग्र जनप्रतिक्रिया को अपनी कविताओं के माध्यम से स्वर दिया था। इन्हीं मौकों पर बाबा ने ‘‘पुत्र हूँ भारत माता का”, ‘‘और कुछ नहीं, हिन्दुस्तानी हूँ महज”, ‘’क्रांति तुम्हारी तुम्हें मुबारक”, ‘’कम्युनिज्म के पंडे”, “कट्टर कामरेड उवाच” तथा “इन्दुजी, इन्दुजी क्या हुआ आपको” जैसी कविताएँ लिखी थीं।
बाबा की कविताओं की भाव-भूमि प्रयोगवादी और नई कविता की भाव-भूमि से काफी भिन्न है, क्योंकि इन प्रवृत्तियों की ज्यादातर कविताएँ समाज-निरपेक्ष और आत्मपरक हैं, जबकि बाबा की कविताएँ समाज-सापेक्ष और जनोन्मुख हैं। उनके समकालीन कवियों की रचनाओं के संदर्भ में देखने पर यह बात ज्यादा साफ तौर पर समझ में आती है कि बाबा की कविता का बदलते भाव-बोध के बदलते धरातल के साथ किस तरह का रिश्ता रहा है, अर्थात् यह उन सबसे किस हद तक जुड़ती है और किस हद तक अलग होती है।
अज्ञेय और शमशेर जैसे कवियों की रचनाएँ कलावादी (art for art’s sake) भाव-भूमि पर प्रतिष्ठित हैं, जबकि नागार्जुन की कविताएँ जीवनवादी (art for life’s sake) भाव-भूमि पर। यह अंतर इन दोनों तरह की कविताओं के कथ्य, शिल्प और भाषा-तीनों स्तर पर देखा जा सकता है। निराला की उत्तरवर्ती दौर वाली कुछ कविताएँ, जैसे ‘कुकुरमुत्ता’ और ‘तोड़ती पत्थर’ भी जनवादी भाव-भूमि के करीब हैं। दोनों का मूल स्वर प्रगतिशील चेतना से सरोकार रखता है। निराला जहाँ खत्म करते हैं, बाबा वहाँ से शुरू करते हैं।
रघुवीर सहाय और श्रीकांत वर्मा की कविताओं की भाव-भूमि बुनियादी रूप से बाबा की कविताओं से भिन्न है और यह भिन्नता मूलत: प्रतिबद्धता एवं सरोकार से संबंधित है। फिर भी, इन तीनों कवियों की काव्य-चेतना के बीच एक अंतर्संबंध भी है, जिसे रेखांकित करते हुए इब्बार रब्बी कहते हैं-
वह समाज जो आदमी का शोषण कर रहा है,
उसकी मानसिकता को उजागर करते हैं
अप्रत्यक्ष रूप से श्रीकांत वर्मा; उसके स्रोतों
की पोल खोलते हैं रघुवीर सहाय; और उससे
लड़ना सिखाते हैं नागार्जुन।
इस अंतर और अंतर्संबंध को इससे भी बेहतर ढंग से समझने के लिए इन तीनों कवियों का वर्ष 1975 के ‘आपातकाल’ के प्रति नजरिया देखना महत्वपूर्ण होगा। श्रीकांत वर्मा आपातकाल के पक्ष में खड़े थे; रघुवीर सहाय ‘हँसो, हँसो जल्दी हँसो’ जैसी कविताओं के माध्यम से सांकेतिक प्रतिवाद कर रहे थे; जबकि बाबा नागार्जुन न सिर्फ तीखे तेवर वाली कविताएँ लिखकर, बल्कि स्वयं आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेकर और जेल की सज़ा भुगतकर आपातकाल का विरोध कर रहे थे। इसी तरह यदि हम मुक्तिबोध की कविता से बाबा की कविताओं की तुलना करें तो पाते हैं कि मुक्तिबोध की कविता गहन विचारशीलता और स्वातंत्र्योत्तर भारत के मध्यवर्गीय चरित्र में निहित सुविधाजीविता और आदर्शवादिता के बीच के अंतर्द्वन्द्व की कविता है, जिसमें आम आदमी का संघर्ष आत्मसंघर्ष के रूप में है। मुक्तिबोध अपने समय के संघर्षों से सैद्धांतिक स्तर पर जुड़ते हैं, दार्शनिक अंदाज में। जबकि नागार्जुन की कविता ‘अनुभवजन्य भावावेग से प्रेरित’ है और आत्म-संघर्ष की बजाय खुले संघर्ष के स्वर में है। वह अपने समय के संघर्षों से व्यावहारिक धरातल पर जुड़ते हैं, एक सक्रिय योद्धा की तरह।
बाबा की कविताएँ सौंदर्य के भाव-बोध और भाषा-शैली आदि के स्तर पर सबसे अधिक केदारनाथ अग्रवाल और त्रिलोचन शास्त्री की कविताओं की भाव-भूमि के करीब हैं। इन तीनों कवियों के बुनियादी संस्कार और सरोकार काफी हद तक एक जैसे हैं और इसी वजह से तीनों एक धारा के कवि माने जाते हैं। फिर भी, बाबा की कविताएँ बाबा की कविताएँ हैं और वे केदार एवं त्रिलोचन की कविताओं की तुलना में अपनी अलग छाप छोड़ती हैं।
मुझे उनकी एक कविता ‘बादल को घिरते देखा है’ स्कूल के दिनों से याद है। कुछ पंक्तियाँ सुनिए:
अमल धवल गिरि के शिखरों पर,
बादल को घिरते देखा है।
छोटे–छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहीन कणों को,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है,
बादलों को घिरते देखा है।
तुंग हिमालय के कंधों पर
छोटी बड़ी कई झीलें हैं,
उनके श्यामल नील सलिल में
समतल देशों से आ–आकर
पावस की ऊमस से आकुल
तिक्त–मधुर बिसतंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।
उनका मैथिली गीत, “श्यामघटा, सित बीजुरि-रेह” भी मुझे अति प्रिय है:
श्याम घटा, सित बीजुरि–रेह
अमृत टघार राहु अवलेह
फाँक इजोतक तिमिरक थार
निबिड़ विपिन अति पातर धार
दारिद उर लछमी जनु हार
लोहक चादरि चानिक तार
देखल रहि रहि तड़ित–विलास
जुगुलकिशोरक उन्मद रास
सन्दर्भ – सृजन शिल्पी
जनवरी 17, 2008  3 Replies प्रकृति के सुकुमार कवि: सुमित्रानंदन पंत
आज भले ही हिन्दी साहित्य में छायावादी युग का अवसान हो चुका हो किन्तु यह सत्य है कि हिन्दी कविता छायावाद के एक अत्यन्त समृद्ध व सम्पन्न दौर से गुजरा है। हिन्दी में जब कभी छायावाद की चर्चा होती है, तब उसके चार सुदृढ स्तम्भों के रूप में प्रसाद, निराला, महादेवी वर्मा तथा सुमित्रानंदन पंत को याद किया जाता है। ये चारों उस युग के कवि हैं, जब हिन्दी कविता घुटनों के बल चलना सीख रही थी। सुमित्रानंदन ने जब लिखना शुरू किया, उस समय मैथिलीशरण गुप्त जैसे कवि मौजूद होने के बावजूद हिन्दी को कविता की भाषा के रूप में मान्यता तक प्राप्त नहीं थी। प्रसाद व निराला के साथ मिलकर पंत ने हिन्दी को कविता की न केवल सौम्य, सुकुमार और सशक्त भाषा के रूप में एक सर्वथा नवीन प्रतिष्ठा दिलवाई बल्कि हिन्दी काव्य के लिए एक बिल्कुल नई शैली भी ईजाद की।
पंत जी की रचनाओं के बारे में प्रायः यह प्रश्न उठाया जाता रहा है कि वह संसारमुखी व यथार्थवादी होने के बदले रूमानी और अति आत्मकेन्द्रित क्यों है ? वस्तुतः यह हमारी समूची सांस्कृतिक विरासत का ही मूल तत्त्व व मौलिक स्वर है। हिन्दी कविता छायावादी युग के उस दौर में अपने प्रसव-संकट के समय उस आदि साँचे की ओर लौट गई, जो सदियों से भारतीय चेतना का मूल मातृ साँचा रहा है।
प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत अल्मोडा जिले के कोसानी नामक स्थान पर २० मई १९०० को जन्मे। कवि और पीडा के शाश्वत रिश्ते की सत्यता उनके जन्म के कुछ ही घंटों के बाद माँ की मृत्यु के रूप में प्रकट हुई। माँ के अभाव ने बालक सुमित्रानंदन को अपने पिता के बहुत अधिक निकट ला दिया। पिता गंगादत्त जी कोसानी में चाय बागानों की मैनेजरी के अलावा लकडी का कारोबार भी करते थे। आर्थिक स्थिति सुदृढ थी किन्तु युवावस्था में ही पत्नी के बिछोह से वह जीवन के प्रति विरक्त हो उठे। विरक्ति के बावजूद वह बालक सुमित्रानंदन पंत से अत्यधिक स्नेह रखते थे।
पंत जी का बाल्यकाल अल्मोडा में उनके पिता द्वारा बनवाए गए शानदार व विशाल मकान में बीता। सन् १९०५ में वह विद्याध्ययन हेतु कोसानी पाठशाला में दाखिल किए गए। संस्कृत का प्रारम्भिक ज्ञान उन्हें अपने फूफा से प्राप्त हुए। नौ वर्ष की अल्पायु में बालक पंत ने मेघदूत, अमरकोश, चाणक्य आदि संस्कृत ग्रन्थों का अध्ययन पूर्ण कर लिया था। पंडित अम्बादत्त जोशी से पंत जी ने फारसी तथा अपने पिता से अंग्रेजी की शिक्षा प्राप्त की।
दस वर्ष की आयु में शिक्षा प्राप्ति के उद्देश्य से पंत जी अल्मोडा आए। यह उनके मानसिक विकास की दिशा में महत्त्वपूर्ण मोड था। इस दौरान वह स्वामी सत्यदेव के सम्फ में आए, जिन्होंने पंत जी के विचारों को एक साहित्यिक एवं राष्ट्रवादी स्पर्श प्रदान किया। पंत जी ने अल्मोडा में ही विधिवत हिन्दी साहित्य का अध्ययन प्रारम्भ किया। इस बीच उन्हें इलाचन्द्र जोशी, गोविन्दवल्लभ पंत और श्यामचरण पंत जैसे मित्र मिले। साहित्यिक गतिविधियों के कारण उनकी पढाई-लिखाई प्रभावित तो अवश्य हुई किन्तु फिर भी बदस्तूर चलती रही। उन्होंने अल्मोडा में नौवीं कक्षा तक शिक्षा प्राप्त की।
इस दौरान उन्होंने अपना नाम गोसाई दत्त से बदल कर सुमित्रानंदन पंत रख लिया। पंत जी ने कक्षा सातवीं या आठवीं में अध्ययन के दौरान ही कविकर्म को अपनाने का निश्चय कर लिया था।
एक बार सुमित्रानंदन पंत अपने पिता के साथ नैनीताल गए। वहाँ की प्राकृतिक सुषमा से प्रभावित होकर उन्होंने अपनी प्रथम रचना ‘हार‘ लिखी। इस उपन्यास में नैनीताल के प्राकृतिक सौन्दर्य का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है।
पन्द्रह वर्ष की आयु में पंत जी ने पद्य और छंदों में अभिनव प्रयोग करते हुए अनेक रचनाएँ लिखीं। उनकी प्रारम्भिक रचनाएँ समसामयिक विषयों व प्राकृतिक सौन्दर्य पर केन्द्रित थीं। ये रचनाएँ ‘सुधाकर‘, ‘मर्यादा‘ तथा अल्मोडा के स्थानीय अखबारों में छपती थीं।
अगस्त १९१८ में पंत जी ने बनारस के जयनारायण हाई स्कूल में प्रवेश लिया। इसी साल गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर वहाँ पधारे। पंत जी उनसे बहुत प्रभावित हुए। अगले वर्ष वह इंटर की परीक्षा पास करने प्रयाग के म्योर सेन्ट्रल कॉलेज आ गए, जहाँ उन्हें रामचन्द्र जी टंडन, परशुराम चतुर्वेदी, फिराक गोरखपुरी आदि हस्तियों के सम्फ में आने का अवसर मिला। सन् १९२१ में असहयोग आन्दोलन के दौरान गाँधी जी के आह्वान पर पंत जी ने कॉलेज छोड दिया।
सन् १९२६-२७ में पंत जी की पहली पुस्तक ‘पल्लव‘ के नाम से प्रकाशित हुई। इस समय आर्थिक रूप से पंत जी के परिवार की स्थिति अत्यधिक नाजुक थी। सारी जमापूँजी खर्च हो चुकी थी। हजारों रुपयों के कर्ज को चुकाने में जमीन जायदाद व घर का सामान तक बिक चुका था। १९२७ में बडे भाई रघुदत्त जी की मृत्यु ने पंत जी को अन्दर तक हिला कर रख दिया। पंत जी के पिता अपने बडे पुत्र की मृत्यु के सदमे को सहन नहीं कर पाए और डेढ साल बाद ही परलोक सिधार गए। संवेदनशील व भावुक पंत के लिए यह बहुत गहरा आघात था, जिसके कारण वह लम्बे समय तक अस्त-व्यस्त रहे।
सन् १९३० में पंत अपने भाई देवीदत्त के साथ अल्मोडा आ गए। यहाँ उन्होंने फ्रायड, साम्यवाद, माक्र्सवाद आदि का गहन अध्ययन किया। वह माक्र्स के आर्थिक चिंतन से बेहद प्रभावित हुए। पूरनचन्द जोशी के सानिध्य में रहकर उनके विचारों में परिपक्वता आई। इस दौरान उन्होंने कवि के कल्पनाशील मन के लिए यथार्थ की नई जमीन तोडी। इस सम्बन्ध में पंत जी कहते हैं – ‘मेरे पाठक इस तथ्य से परिचित हैं कि काला कंकर के ग्राम जीवन के महान् सम्फ का प्रभाव मेरी समूची जीवन दृष्टि का एक अनिवार्य अंग बन चुका है। युगवाणी और ग्राम्या ही में नहीं, उसके बाद की रचनाओं में भी किसी न किसी रूप में और लोकायतन में विशेष रूप से उस दृष्टि की व्यापक छाप देखने को मिलती है।‘
पंत जी ने अपने भावों और विचारों को मूर्तरूप प्रदान करने के दृष्टिकोण से ‘लोकायतन‘ नामक संस्था की शुरुआत की किन्तु इसमें कुछ समय उन्हें खास कामयाबी नहीं मिली। पांडिचेरी के अरविन्द आश्रम में कुछ समय रहने के बाद पंत जी ने स्वयं को अरविन्द-दर्शन से अभिभूत पाया। अरविन्द विचार-श्ाृंखला का क्रमबद्ध अध्ययन करने के बाद पंत जी की जीवन दृष्टि ने और व्यापक आधारभूमि पाई। युगान्त, युगवाणी, स्वर्णकिरण आदि रचनाएँ उनके यथार्थोन्मुख रुख की ओर इंगित करती हैं।
सन् १९३८ में पंत जी ने ‘रूपाभ‘ नामक एक प्रगतिशील मासिक पत्र का संपादन भार संभाला। रघुपति सहाय, शिवदानसिंह चौहान, शमशेर जैसे लोगों के सम्फ में आने के बाद वह प्रगतिशील लेखक संघ से जुडे।
१९५५ से १९६२ तक सुमित्रानंदन पंत आकाशवाणी के मुख्य प्रोड्यूसर के पद पर बने रहे। १९६१ में उन्हें भारत सरकार के उच्च राष्ट्रीय सम्मान ‘पद्मभूषण‘ से अलंकृत किया गया।
सन् १९६९ में सुमित्रानंदन पंत को उनकी काव्य कृति ‘चिदम्बरा‘ के लिए देश के सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार ‘ज्ञानपीठ‘ से सम्मानित किया गया। ‘चिदम्बरा‘ को वर्ष १९६८ की सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक कृति घोषित करते हुए कहा गया कि कवि पंत की ये काव्य रचनाएँ युग के संघर्षों की पृष्ठभूमि में नई सौन्दर्यबोध भावना, भौतिक प्रगति और आध्यात्मिक विकास की शक्तियों के समन्वय से प्रसूत नैतिकता की धारा एवं उन्नत मनुष्यत्व की चेतना को रूपायित करती है। कवि पंत हिन्दी काव्य में आधुनिक युग के प्रवर्तकों तथा अभिनव काव्य-चेतना के प्रेरकों में अग्रगण्य हैं।
आजीवन अविवाहित रहे हिन्दी साहित्य के इस महत्त्वपूर्ण लेखक ने तीन नाटक, एक कहानी संग्रह, एक उपन्यास, एक संस्मरण संकलन सहित करीब चालीस पुस्तकें लिखीं, जो उनकी निरन्तर सृजनशीलता को रेखांकित करती हैं। ‘उच्छ्वास‘, ‘गुंजन‘, ‘वीणा‘ आदि छायावादी कृतियों से शुरू हुआ यह साहित्यिक सफर अरविन्द-दर्शन और साम्यवादी युग-चेतना से प्रभावित ग्रंथों ‘युगांत‘, ‘स्वर्णकिरण‘, ‘उत्तरा‘, ‘पतझड‘, ‘शिल्पी‘ में सिमटता हुआ ‘कला और बूढा चाँद‘ जैसी यथार्थवादी रचना तक पहुँचा। इस रचना पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला। ७७ वर्ष की आयु में सुमित्रानंदन पंत का निधन हो गया, जो सचमुच हिन्दी साहित्य जगत् की अपूरणीय क्षति था।
जनवरी 17, 2008  1 Reply निराला का भाषागत संघर्ष
तुलसीदास के बाद हिन्दी साहित्य में निराला ही एक ऐसे कवि हैं जिन्होंने भारतीय काव्य मनीषा को ठीक से समझकर उसे युग अनुरूप प्रेरणादायी बनाया था। जैसे तुलसी ने फारसी के आतंक से हिन्दी को मुक्त कर भाषा के स्तर पर इतने प्रयोग किए कि वह हिन्दी साहित्य के लिए उपयोगी बन गयी। उन्होंने संस्कृत की कठिन शब्दावली को सहज और जनप्रिय छन्दों में ढाला यही कारण है कि रामचरित मानस के प्रत्येक काण्ड का प्रारम्भ वे बोधगम्य संस्कृत में करते हैं। निराला ने भाषा और छन्द के स्तर पर हिन्दी में जो प्रयोग किए उन्हें तुलसीदास के प्रयोग से जोडकर देखना उचित है। भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र के युग के बाद और विशेषकर सरस्वती के प्रकाशन का वह कालखण्ड जो आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी युग के नाम से जाना जाता है। निराला भी इसी कालखण्ड में लेखन प्रारम्भ करते हैं। द्विवेदी जी जिस हिन्दी को विकसित करने में लगे रहे महाप्राण निराला जैसे अनेक साहित्यकारों और साहित्य प्रेमियों ने अपना सर्वस्व अर्पण किया। उसी हिन्दी को आगे बढाने का दायित्व वर्तमान पीढयों का है। यह पितृऋण हमारे ऊपर है। इससे उऋण हुए बिना न तो हमारी मुक्ति है और न ही राष्ट्र की।
हिन्दी जिस रूप में आज हमारे सामने है उसमें निराला का बहुत बडा योगदान है। हीन ग्रंथि से पीडत हिन्दी समाज को अपनी भाषा और साहित्य पर इसलिए स्वाभिमान होना चाहिए क्योंकि उसके पास विश्व का सबसे बडा कवि तुलसीदास है। उन्हें इसलिए भी गौरव होना चाहिए क्योंकि उनके पास सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला जैसा साहित्यकार और पत्रकार उपलब्ध है। लेकिन यह दुःखद पक्ष है कि आज हिन्दी भाषी समाज इन मूल्यवान बिन्दुओं पर विचार नहीं कर रहा है। हमारा सोच इस स्तर तक कैसे पहुँच गया। इस पर विचार करते हुए निराला ने ”सुधा” पत्रिका के सम्पादकीय में सन् १९३५ में लिखा था – ”हिन्दी साहित्यकारों ने हिन्दी के पीछे तो अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया है पर हिन्दी भाषियों ने उनकी तरफ वैसा ध्यान नहीं दिया – शतांश भी नहीं। वे साहित्यिक इस समय जिन कठिनता का सामना कर रहे हैं, उसे देखकर किसी भी सहृदय की आँखों में आँसू आ जाएँगे। बदले में उन्हें अनधिकारी साहित्यिकों से लाँछन और असंस्कृत जनता से अनादर प्राप्त हो रहा है। (सुधा जून ३५ समां टि. २)
निराला का जन्म २१ फरवरी सन् १८९९ में महिषादल में हुआ था। यह स्थान आज के बंगलादेश में आता है। यह समय देश की आजादी के लिए संघर्ष का समय था। अंग्रेज जान-बूझकर भारतीय संस्कृति और भाषा को नष्ट करने में लगे हुए थे। अंग्रेजों की रणनीति का यह महत्त्वपूर्ण हिस्सा रहा है कि वे जहाँ भी शासन करते थे, वहाँ की भाषाओं को नष्ट कर देते थे। डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं ”साम्राज्यवाद से जहाँ भी बन पडा, उसने न केवल भाषाओं का, वरन् उन्हें बोलने वाली जातियों का भी नाश किया। अमरीकी महाद्वीपों में अजतेक और इंका जनों की सभ्यताएँ अत्यन्त विकसित थीं। अब वहाँ उनके ध्वंसावशेष ही रह गए हैं। रेड इंडियन जनों से उनकी भूमि छीन ली गयी, अमरीकी विश्वविद्यालयों में उनकी भाषाएँ शिक्षा का माध्यम नहीं है। अमरीकी नीग्रो अंग्रेजी बोलते हैं, उनके पुरखे कौन सी भाषा बोलते थे, यह वे नहीं जानते। दक्षिणी अफ्रिका, रोडेशिया, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड, जहाँ भी साम्राज्यवादियों से बन पडा उन्होंने गुलाम बनाए हुए देशों के मूल निवासियों का नाश किया, उनकी भाषाओं और संस्कृतियों का दमन किया।” (निराला की साहित्य साधना, भाग-२, पृष्ठ १९)
एक महान् चिन्तक की तरह निराला अपने समय की स्थिति पर निगाह रखे हुए थे तथा अपनी कविताओं और लेखों के द्वारा भारतीय जनमानस को यह बता रहे थे कि अंग्रेजी की पक्षधरता उन्हें कहाँ ले जाएगी। सन् १९३० में सुधा के सम्पादकीय में उन्होंने लिखा, ”भारतवर्ष अंग्रेजों की साम्राज्य लालसा सर्वप्रधान ध्येय रहा है। यहाँ की सभ्यता और संस्कृति अंग्रेजों की सभ्यता और संस्कृति से बहुत कम मेल खाती थी, पर सात समुद्र पार से आकर इतने विस्तृत और इतने सभ्य देश में राज्य करना जिन अंग्रेजों को अभीष्ट था, वे बिना अपनी कूटनीति का प्रयोग किए कैसे रह सकते थे ‘ अंग्रेजों की नीति हुई – भारत के इतिहास को विकृत कर दो और हो सके तो उसकी भाषा को मिटा दो। चेष्टाएँ की जाने लगी। भारतीय सभ्यता और संस्कृति तुलना में नीची दिखायी जाने लगीं। हमारी भाषाएँ गँवारू असाहित्यिक और अविकसित बताई जाने लगी। हमारा प्राचीन इतिहास अंधकार में डाल दिया गया। बकायदा अंग्रेजी की पढाई होने लगी। इस देश का शताब्दियों से अंधकार में पडा हुआ जन समाज समझने लगा कि जो कुछ है, अंग्रेजी सभ्यता है, अंग्रेजी साहित्य है और अंग्रेज हैं।”
निराला हिन्दी और संस्कृत के लिए निरन्तर संघर्ष करते रहे ”अनामिका” नाम की कविता संग्रह में ”मित्र के प्रति” कविता में उनके भाव देखे जा सकते हैं –
जला है जीवन यह आतप में दीर्घकाल
सूखी भूमि, सूखे तरु, सूखे शिक्त आलाव
बन्द हुआ गूँज, धूलि धूसर हो गए कुंज,
किन्तु पडी व्योम-उर बन्धु, नील-मेघ-माल।
जो काम देश की आजादी के लिए क्रांतिकारी लोग अपने स्तर पर कर रहे थे। साहित्य और भाषा के स्तर पर यही संघर्ष निराला लड रहे थे। और इससे भी अधिक वे दोनों स्तरों पर काम कर रहे थे। पूरे स्वतंत्रता आंदोलन में किसानों का जो एक मात्र आंदोलन हुआ था। इस आंदोलन में निराला ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। निराला के जीवन पर केन्द्रित पुस्तक ”निराला की साहित्य साधना भाग-१,२ एवं ३ में डॉ. रामविलास शर्मा ने निराला के भाषागत संघर्ष का सुन्दर चित्रण किया है। इस पुस्तक के विषय में कहा जाता है कि किसी कवि पर केन्द्रित विश्व की उत्कृष्ट रचना है। डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं ”जला है जीवन यह – निराला का जीवन जला है, हिन्दी का जीवन जला है। निराला के मन की आशाएँ, उल्लास, विषाद्, निराशा, वीरतापूर्ण कर्म, त्रास, दुःस्वप्न यह सब कुछ कहीं न कहीं हिन्दी के इस आन्तरिक संघर्ष से जुडा हुआ है। निराला के बिना हिन्दी का यह संघर्ष नहीं समझा जा सकता, इस संघर्ष के बिना निराला नहीं समझे जा सकते, न व्यक्तित्व न कृतित्व। निराला का जीवन हिन्दीमय है, हिन्दी उनके लिए साहित्य साधना का माध्यम है अपने में यह साध्य है। भारत देश और इस देश की जनता की तरह निराला की आस्था, श्रद्धा, सर्वाधिक प्रेम का अधिष्ठान है भाषा। असह्य पीडा के क्षणों में वह सारा दुःख ”यह हिन्दी का प्रेमोपहार कह कर स्वीकार करते हैं।” (निराला की साहित्य साधना भाग-२, पृष्ठ १७२)
हिन्दी को लेकर निराला उस समय के सबसे बडे नेताओं से भी बातचीत कर अपनी चिन्ताएँ व्यक्त करते रहे। उन्होंने महात्मा गाँधी से भी हिन्दी के विकास को लेकर बातचीत की। गाँधी जी हिन्दी के प्रबल पक्षधर थे। स्वतंत्रता आन्दोलन में लगे हुए नेताओं में गाँधी ही एक ऐसे व्यक्ति थे जो राजनैतिक आजादी को भाषागत आजादी से जोडकर देख रहे थे और यह कह रहे थे – ”मेरा नम्र लेकिन दृढ अभिप्राय है कि जब तक हम भाषा को राष्ट्रीय और अपनी भाषाओं प्रान्तों में उनका योग्य स्थान नहीं देंगे, तब तक स्वराज्य की सब बातें निरर्थक हैं। (सन् १९३५ में इन्दौर म दिए गए भाषण से) गाँधी के इसी देश में आज का ज्ञान आयोग यह मानता है कि बिना अंग्रेजी के राष्ट्र का विकास असम्भव है। ज्ञान आयोग और चाहे जो कुछ भी सोचे किन्तु उसका यह सोच गाँधी और निराला की भाँति राष्ट्र के उन्नयन की बात नहीं सोच रहा है। इसी भाँति वे पंडित जवाहरलाल नेहरू से भी हिन्दी के चिन्तन को लेकर आमने-सामने हुए। इस घटना का चित्रण करते हुए डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा है। (यह चित्रण उस समय का है जब रावी नदी के तट पर पूर्ण स्वाधीनता की प्रतिज्ञा ली गई थी जिसकी खुशी में पूरे देश में कार्यक्रम आयोजित हो रहे थे जिनमें भाग लेने के लिए राष्ट्रीय नेता पूरे देश का भ्रमण कर रहे थे)” जनता से विदा होने और गाडी के चलने पर जब नेहरू जी भीतर आकर बैठे तब निराला ने शुरू किया – ‘आपसे कुछ बातें करने की गरज से अपनी जगह से यहाँ आया हुआ हूँ।’
नेहरू ने कुछ न कहा। निराला ने अपना परिचय दिया। फिर हिन्दुस्तानी का प्रसंग छेडा, सूक्ष्म भाव प्रकट करने में हिन्दुस्तानी की असमर्थता जाहिर की। फिर एक चुनौती दी – ‘मैं हिन्दी के कुछ वाक्य आपको दूँगा जिनका अनुवाद आप हिन्दुस्तानी जबान में कर देंगे, मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ। इस वक्त आपको समय नहीं। अगर इलाहाबाद में आप मुझे आज्ञा करें, तो किसी वक्त मिलकर मैं आपसे उन पंक्तियों के अनुवाद के लिए निवेदन करूँ।’
जवाहरलाल नेहरू ने चुनौती स्वीकार न की, समय देने में असमर्थता प्रकट की। निराला ने दूसरा प्रसंग छेडा। समाज के पिछडेपन की बात की, ज्ञान से सुधार करने का सूत्र पेश किया। हिन्दू-मुस्लिम समस्या का हल हिन्दी के नये साहित्य में जितना सही पाया जायगा, राजनीतिक साहित्य में नहीं – निराला ने अपने व्यावहारिक वेदान्त कर गुर समझाया।
जवाहरलाल नेहरू डिब्बे में आई बला को देखते रहे, उसे टालने की कोई कारगर तरकीब सामने न थी। डिब्बे में आर.एस. पंडित भी थे। दोनों में किसी ने बहस में पडना उचित न समझा। लेकिन निराला सुनने नहीं, सुनाने आये थे। बनारस की गोष्ठी में जवाहरलाल के भाषण पर वह ‘सुधा’ में लिख चुके थे, अब वह व्यक्ति सामने था जो अपने हिन्दी-साहित्य संबंधी ज्ञान पर लज्जित न था, जो स्वयं अंग्रेजी में लिखता था, जो हिन्दी वालों को क्या करना चाहिए, उपदेश देता था। (इससे पूर्व पंडित नेहरू बनारस के एक सम्मेलन में कह आए थे कि हिन्दी साहित्य अभी दरबारी परम्परा से नहीं उबरा है। यहीं पर उन्होंने यह भी कहा था कि अच्छा होगा कि अंग्रेजी साहित्य की कुछ चुनी हुई पुस्तकों का हिन्दी में अनुवाद करवाया जाए, इस पूरे प्रसंग पर ही निराला, पंडित जवाहरलाल नेहरू से बात कर रहे थे)।
निराला ने कहा – ‘पंडित जी, यह मामूली अफसोस की बात नहीं कि आप जैसे सुप्रसिद्ध व्यक्ति इस प्रान्त में होते हुए भी इस प्रान्त की मुख्य भाषा हिन्दी से प्रायः अनभिज्ञ हैं।’ किसी दूसरे प्रान्त का राजनीतिक व्यक्ति ऐसा नहीं। सन् १९३० के लगभग श्री सुभाष बोस ने लाहौर के विद्यार्थियों के बीच भाषण करते हुए कहा था कि बंगाल के कवि पंजाब के वीरों के चरित्र गाते हैं। उन्हें अपनी भाषा का ज्ञान और गर्व है। महात्मा गाँधी के लिए कहा जाता है कि गुजराती को उन्होंने नया जीवन दिया है। बनारस के जिन साहित्यिकों की मण्डली म आपने दरबारी कवियों का उल्लेख किया कि, उनमें से तीन को मैं जानता हूँ। तीनों अपने-अपने विषय के हिन्दी के प्रवर्तक हैं। प्रसाद जी काव्य और नाटक-साहित्य के, प्रेमचन्द जी कथा-साहित्य के और रामचन्द्र जी शुक्ल आलोचना-साहित्य के। आप ही समझिए कि इनके बीच आपका दरबारी कवियों का उल्लेख कितना हास्यास्पद हो सकता है। एक तो हिन्दी के साहित्यिक साधारण श्रेणी के लोग हैं, एक हाथ से वार झेलते, दूसरे से खिलते हुए, दूसरे आप जैसे बडे-बडे व्यक्तियों की मैदान में वे मुखालिफत करते देखते हैं। हमने जब काम शुरू किया था, हमारी मुखालिफत हुई थी। आज जब हम कुछ प्रतिष्ठित हुए, अपने विरोधियों से लडते, साहित्य की दृष्टि करते हुए, तब किन्हीं मानी में हम आपको मुखालिफत करते देखते हैं। यह कम दुर्भाग्य की बात नहीं, साहित्य और साहित्यिक के लिए। हम वार झेलते हुए सामने आए ही थे कि आपका वार हुआ। हम जानते हैं कि हिन्दी लिखने के लिए कलम हाथ में लेने पर, बिना हमारे कहे फैसला हो जायगा कि बडे से बडा प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ एक जानकार साहित्यिक के मुकाबले कितने पानी में ठहरता है। लेकिन यह तो बताइए, जहाँ सुभाष बाबू, अगर मैं भूलता नहीं, अपने सभापति के अभिभाषण में शरत्चन्द्र के निधन का जिक्र करते हैं, वहाँ क्या वजह है जो आपकी जुबान पर प्रसाद का नाम नहीं आता। मैं समझता हूँ, आपसे छोटे नेता भी सुभाष बाबू के जोड के शब्दों में कांग्रेस में प्रसाद जी पर शोक-प्रस्ताव पास नहीं कराते। क्या आप जानते हैं कि हिन्दी के महत्त्व की दृष्टि से प्रसाद कितने महान् हैं ‘
जवाहरलाल एकटक निराला को देखते रहे। ऐसा धाराप्रवाह भाषण सुनाने वाले जीवन में ये उन्हें पहले व्यक्ति मिले थे, अगला स्टेशन अभी आया न था। सुनते जाने के सिवा चारा न था।
निराला को प्रेमचन्द याद आये। बोले – ‘प्रेमचन्द जी पर भी वैसा प्रस्ताव पास नहीं हुआ जैसा शरत्चन्द्र पर।’
नेहरू ने टोका – ‘नहीं, जहाँ तक याद है, प्रेमचन्द जी पर तो एक शोक-प्रस्ताव पास किया गया था।’
निराला ने अपनी बात स्पष्ट की – ‘जी हाँ, यह मैं जानता हूँ, लेकिन उसकी वैसी महत्ता नहीं जैसी शरत्चन्द वाले की है।’
आखिर अयोध्या स्टेशन आ गया। निराला ने आखिरी बात कही – ‘अगर मौका मिला तो आपसे मिलकर फिर साहित्यिक प्रश्न निवेदित करूँगा।’
नेहरू ने इसका कोई उत्तर न दिया।
नमस्कार करके निराला उतरे और अपने डिब्बे में आ गये। प्लेटफार्म महात्मा गाँधी की जय, पं. जवाहरलाल नेहरू की जय से गूँजता रहा। ( निराला की साहित्य साधना, भाग-१, पृष्ठ क्रमांक ३१८ से ३२०)।
निराला के लिए न तो कोई व्यक्ति बडा था और न ही पद। उनके व्यक्ति की यह सबसे बडी ताकत थी कि वे किसी से डरते भी न थे। भाषा और साहित्य के लिए किसी से भी भिड सकते थे और भिडे भी।
वर दे वीणा वादिनी ………. । सरस्वती वन्दना से हमारे सांस्कृतिक कार्यक्रम शुरू होते हैं। इस वन्दना में प्रयुक्त नवगति, नवलय, तालछन्द नव ……. नव पर नव स्वर दे माँगने वाले इस अमर गायक की वेदना अभी भी हिन्दी भाषी समाज और हिन्दी के पक्षधर पूरी तरह नहीं समझ सके हैं। निराला ने माँ सरस्वती से सारी नवीनता हिन्दी के लिए ही माँगी थी क्योंकि उनके लिए जीवन का एकमात्र उद्देश्य हिन्दी भाषा और उसका साहित्य था। अपने जीवन की संध्या में वे कहते हैं – ”ताक रहा है भीष्म सरों की कठिन सेज से”। निःसन्देह निराला हिन्दी के भीष्म पितामह थे। इन प्रसंगों में हिन्दी को सम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए महाभारत अभी शेष है। इससे लडते रहना ही निराला के प्रति सादर कृतज्ञता होगी।

हिंदी दिवस: सौ बरस, 10 श्रेष्ठ कविताएं BBC Documentery


हिंदी साहित्य में पिछले सौ वर्षों में जो सैकड़ों कविताएं प्रकाशित हुई हैं उनमें से मैंने अपनी पसंद से ये दस श्रेष्ठ कविताएं चुनी हैं.
1. अंधेरे में – गजानन माधव मुक्तिबोध
आधुनिक हिंदी कविता में सन् 2013 एक ख़ास अहमियत रखता है क्योंकि इस वर्ष गजानन माधव मुक्तिबोध की लंबी कविता ‘अंधेरे में’ की अर्धशती शुरू हो रही है. सन् 1962-63 में लिखी गई और नवंबर 1964 की ‘कल्पना’ पत्रिका में प्रकाशित यह कविता इन 50 वर्षों में लगातार प्रासंगिक होती गई है और आज एक बड़ा काव्यात्मक दस्तावेज़ बन चुकी है.
समय बीतने के साथ वह अतीत की ओर नहीं गई, बल्कि भविष्य की ओर बढ़ती रही है. आठ खंडों में विभाजित इस कविता के विशाल कैनवस पर स्वाधीनता संघर्ष, उसके बाद देश की राजनीति और समाज और बुद्धिजीवी वर्ग में आई नैतिक गिरावट के बीहड़ बिंब हैं और यथास्थिति में परिवर्तन की गहरी तड़प है.
उसमें चित्रित शक्तिशाली वर्गों और बौद्धिक क्रीतदासों की शोभा-यात्रा का रूपक आज भी सच होता दिखता है. हिंदी के एक और अद्वितीय कवि शमशेर बहादुर सिंह ने लिखा था कि यह कविता ‘देश के आधुनिक जन-इतिहास का, स्वतंत्रता के पूर्व और पश्चात् का एक दहकता दस्तावेज़ है. इसमें अजब और अद्भुत रूप का जन का एकीकरण है.’
2. मेरा नया बचपन – सुभद्रा कुमारी चौहान
कई वर्ष पहले लिखी गई सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता ’मेरा नया बचपन’ अपनी मार्मिकता और निश्छलता के लिए अविस्मरणीय है. यह कविता काफ़ी समय तक स्कूली पाठ्यक्रम में लगी रही और पुरानी पीढ़ी के बहुत से लोगों को आज भी कंठस्थ होगी.
’खूब लड़ी मरदानी वह तो झांसी वाली रानी थी’ जैसी ओजस्वी कविता लिखनेवाली सुभद्रा जी इस कविता में अनूठी कोमलता निर्मित करती हैं. अपने बीते हुए बचपन को याद करते हुए वो सहसा अपनी नन्ही बेटी को सामने पाती हैं और देखती हैं कि उनका बचपन एक नए रूप में लौट आया है.
एक बचपन की स्मृति और दूसरे बचपन के वर्तमान के संयोग से एक विलक्षण कविता उपजती है जो सरल और ग़ैर-संश्लिष्ट होने के बावजूद मर्म को छू जाती है. सीधे हृदय से निकली हुई ऐसी रचनाओं को भूलना कठिन है.
3. सरोज स्मृति – निराला
निराला की लंबी कविता ’सरोज स्मृति’ भी ऐसी ही रचना है जो अपने समय को लांघ कर आज भी समकालीन है. विश्व कविता में शोकगीत (एलेजी) को बहुत अहमियत दी जाती है और इस कसौटी पर निराला की यह कविता विश्व के सर्वश्रेष्ठ शोकगीतों में रखी जा सकती है.
इस कविता में निराला अपनी बेटी सरोज के बचपन के खलों, फिर विवाह और असमय मृत्यु की विडंबना-भरी कहानी कहते हैं, जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवाद पर तीखी चोट करते हैं और एक असहाय पिता के रूप में खुद को धिक्कार भेजते हैं:
’धन्ये, मैं पिता निरर्थक था/ तेरे हित कुछ कर न सका’
‘सरोज स्मृति’ संवेदना को विकल कर देने वाली कविता है और दो स्तरों पर पाठक के भीतर अपनी छाप छोड़ती है: पहले करुणा और ग्लानि के स्तर पर और फिर घटना के ब्यौरों और कथा कहने के स्तर पर. ’राम की शक्तिपूजा’ जैसी महाकाव्यात्मक विस्तार की रचना को निराला की प्रतिनिधि कविता माना जाता है, लेकिन ’सरोज स्मृति’ का महत्व यह भी है कि उसमें निराला अपने क्लासिकी सांचे को तोड़कर कविता को कथा के संसार में ले आते हैं.
4. टूटी हुई बिखरी हुई – शमशेर बहादुर सिंह
‘सरोज स्मृति’ की करुणा के बाद शमशेर बहादुर सिंह की ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ में प्रेम की करुणा दिखाई देती है, जो अपने विलक्षण बिंबों, अति-यथार्थवादी दृश्यों के कारण चर्चित हुई. यह प्रेम का प्रकाश-स्तंभ है. एक प्रेमी का विमर्श, उसका आत्मालाप और ख़ुद को मिटा देने की उत्कट इच्छा.
इस कविता में अंतर्निहित संगीत पाठक के भीतर एक उदास और खफीफ अनुगूंज छोड़ता रहता है. इस अनुगूंज को रघुवीर सहाय जैसे कवि ने अपनी एक टिप्पणी में सुंदर ढंग से व्याख्यायित किया था. कविता में प्रेम के बारे में जब भी कोई ज़िक्र होगा, ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ उसमें ज़रूर नज़र आएगी.
5. कलगी बाजरे की – अज्ञेय
खड़ी बोली की कविता का इतिहास अभी सौ वर्ष का भी नहीं है, लेकिन उसमें विभिन्न आंदोलनों के पड़ाव काफ़ी महत्वपूर्ण हैं. ऐसा ही एक प्रस्थान-बिंदु प्रयोगवाद या नयी कविता है, जिसकी घोषणा अज्ञेय की कविता ‘कलगी बाजरे की’ बखूबी करती है.
6. अकाल और उसके बाद – नागार्जुन
दोहा-छंद में लिखी जनकवि नागार्जुन की कविता ‘अकाल और उसके बाद’ अपने स्वभाव के अनुरूप नाविक के तीर की तरह है – दिखने में जितनी छोटी, अर्थ में उतनी ही सघन.
नागार्जुन भारतीय ग्राम जीवन के सबसे बड़े चितेरे हैं और ‘अकाल और उसके बाद’ में घर में रोते चूल्हे, उदास चक्की और अनाज के आने के चित्र हमारी सामुहिक स्मृति में हमेशा के लिए अंकित हो चुके हैं.
इस कविता को हम जब भी पढ़ते हैं, वह हमेशा ताज़ा लगती है. इस कविता की अंतर्निहित गतिमयता है जो उसे नया और प्रासंगिक बनाए रखती है. आधुनिक हिंदी कविता में सबसे लोकप्रिय पंक्तियां खोजी जाएं तो यही कविता सबसे पहले याद आएगी.
7. चंपा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती – त्रिलोचन
प्रगतिशील परंपरा के एक और प्रमुख कवि त्रिलोचन की कविता ‘चंपा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती’ भी एक अविस्मरणीय कविता है जिसकी कथा और संवेदना की कोमलता दोनों अभिभूत करती हैं. यह एक छोटी बच्ची चंपा और कवि का संवाद है.
कवि उसे अक्षर-ज्ञान के लिए प्रेरित करता है ताकि बड़ी होकर वह अपने परदेस गए पति को चिट्ठी लिख सके. लेकिन चंपा नाराज़ होती है और कहती है कि वह अपने पति को कभी परदेस यानी कलकत्ता नहीं जाने देगी और यह कि ‘कलकत्ते पर बजर गिरे’.
एक मार्मिक प्रसंग के माध्यम से इस कविता में खाने-कमाने की खोज में विस्थापन की विडंबना झलक उठती है और चंपा का इनकार स्त्री-चेतना के एक मज़बूत स्वर की तरह सुनाई देता है. कवि और चंपा का संवाद बचपन की मासूमियत लिए हुए है और कविता के परिवेश में लोक संवेदना घुली हुई दिखाई देती है.
8. रामदास – रघुवीर सहाय
रघुवीर सहाय की कविता ‘रामदास’ तक आते-आते दुनिया बहुत कठोर और स्याह हो जाती है. नागरिक जीवन के अप्रतिम कवि रघुवीर सहाय की यह कविता शहरी मध्यमवर्गीय जीवन में आती निर्ममता, संवेदनहीनता और चतुराई की चीरफाड़ करती है.
उसमें एक असहाय व्यक्ति की यंत्रणा है जिसे सब देखते-सुनते हैं, लेकिन उसे बचाने के लिए कोई नहीं आता. दुर्बल लोगों पर होनेवाले अत्याचारों पर रघुवीर सहाय की बहुत सी कविताएं हैं, लेकिन ‘रामदास’ हादसे की ख़बर को जिस वस्तुपरक और बेलौस ढंस से देती है, वह बेजोड़ है. छंद में लिखी होने के कारण यह और भी धारदार बन गई है.
9. बीस साल बाद – धूमिल
धूमिल की कविता ‘बीस साल बाद’ देश की आज़ादी के बीस वर्ष बीतने पर लिखी गई थी, लेकिन आज 66 वर्ष बाद भी वह पुरानी नहीं लगती तो इसकी वजह यह है कि
‘ सड़कों पर बिखरे जूतों की भाषा में
एक दुर्घटना लिखी गई है’
जैसी उसकी पंक्तियां आज और भी सच हैं और यह सवाल आज भी सार्थक है कि<span >
‘क्या आज़ादी सिर्फ़ तीन धके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है?’
धूमिल की यह कविता हमारे लोकतंत्र की एक गहरी आलोचना है, इसलिए वह उनकी दूसरी बहुचर्चित कविता ‘मोचीराम’ की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है.
10 मुक्तिप्रसंग – राजकमल चौधरी
राजकमल चौधरी की लंबी कविता ‘मुक्तिप्रसंग’ न सिर्फ़ इस अराजक कवि की उपलब्धि मानी जाती है, बल्कि लंबी कविताओं में भी एक विशिष्ट जगह रखती है. वह भी हमारी लोकतांत्रिक पद्धतियों की दास्तान कहती है जो जन-साधारण को ‘पेट के बल झुका देती हैं.’
यह मनुष्य को धीरे-धीरे अपाहिज, नपुंसक, राजभक्त, देशप्रेमी आदि बनाने वाली व्यवस्था के विरुद्ध एक अकेले व्यक्ति के एकालाप और चीत्कार की तरह है जिसे शारीरिक इच्छाओं के बीच एक यातनापूर्ण यात्रा के अंत में यह महसूस होता है कि मनुष्य की मुक्ति दैहिकता से बाहर निकलकर ही संभव है. ‘मुक्तिप्रसंग’ का शिल्प अपने रेटरिक और आवेश के कारण भी पाठकों को आकर्षित करता है.
ये ऐसी रचनाएं हैं जो हिंदी कविता की लगभग एक सदी के इस सिरे से देखने पर सहज ही याद आती हैं और यह भी याद आता है कि इनके रचनाकार अब इस संसार में नहीं हैं. लेकिन उनके बाहर और अगली पीढ़ियों के भी अनेक कवि हैं, जिनकी रचनाएं अपने कथ्य और शिल्प में विलक्षण हैं.
केदारनाथ अग्रवाल, विजयदेव नारायण साही, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, श्रीकांत वर्मा, कुंवर नारायण और केदारनाथ सिंह की कई कविताएं, विष्णु खरे की ‘लालटेन जलाना’ और ‘अपने आप’, लीलाधर जगूड़ी की ‘अंतर्देशीय’ और ‘बलदेव खटिक’, चंद्रकांत देवताले की ‘औरत’, विनोद कुमार शुक्ल की ‘दूर से अपना घर देखना चाहिए’ और ‘हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था’, ऋतुराज की ‘एक बूढ़ा आदमी’, आलोक धन्वा की ‘जनता का आदमी’ और ‘सफ़ेद रात’ और असद ज़ैदी की ‘बहनें’ और ‘समान की तलाश’ जैसी अनेक कविताएं अनुभव के विभिन्न आयामों को मार्मिक ढंग से व्यक्त करने के कारण याद रहती हैं और समय बीतने के साथ वे हिंदी की सामूहिक स्मृति में बस जाएंगी.
(प्रस्तुति: अमरेश द्विवेदी)
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए क्लिक करें. आप हमें क्लिक करें फ़ेसबुक और
ट्विटर पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)

हिन्दी व्याकरण (Full)


1
1.भाषा, व्याकरण और बोली
परिभाषा- भाषा अभिव्यक्ति का एक ऐसा समर्थ साधन है जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचारों को दूसरों पर प्रकट कर सकता है और दूसरों के विचार जाना सकता है।
संसार में अनेक भाषाएँ हैं। जैसे-हिन्दी,संस्कृत,अंग्रेजी, बँगला,गुजराती,पंजाबी,उर्दू, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़, फ्रैंच, चीनी, जर्मन इत्यादि।भाषा के प्रकार- भाषा दो प्रकार की होती है-
1. मौखिक भाषा।
2. लिखित भाषा।
आमने-सामने बैठे व्यक्ति परस्पर बातचीत करते हैं अथवा कोई व्यक्ति भाषण आदि द्वारा अपने विचार प्रकट करता है तो उसे भाषा का मौखिक रूप कहते हैं।
जब व्यक्ति किसी दूर बैठे व्यक्ति को पत्र द्वारा अथवा पुस्तकों एवं पत्र-पत्रिकाओं में लेख द्वारा अपने विचार प्रकट करता है तब उसे भाषा का लिखित रूप कहते हैं।
व्याकरण
मनुष्य मौखिक एवं लिखित भाषा में अपने विचार प्रकट कर सकता है और करता रहा है किन्तु इससे भाषा का कोई निश्चित एवं शुद्ध स्वरूप स्थिर नहीं हो सकता। भाषा के शुद्ध और स्थायी रूप को निश्चित करने के लिए नियमबद्ध योजना की आवश्यकता होती है और उस नियमबद्ध योजना को हम व्याकरण कहते हैं।
परिभाषा- व्याकरण वह शास्त्र है जिसके द्वारा किसी भी भाषा के शब्दों और वाक्यों के शुद्ध स्वरूपों एवं शुद्ध प्रयोगों का विशद ज्ञान कराया जाता है।
भाषा और व्याकरण का संबंध- कोई भी मनुष्य शुद्ध भाषा का पूर्ण ज्ञान व्याकरण के बिना प्राप्त नहीं कर सकता। अतः भाषा और व्याकरण का घनिष्ठ संबंध हैं वह भाषा में उच्चारण, शब्द-प्रयोग, वाक्य-गठन तथा अर्थों के प्रयोग के रूप को निश्चित करता है।व्याकरण के विभाग- व्याकरण के चार अंग निर्धारित किये गये हैं-
1. वर्ण-विचार।
2. शब्द-विचार।
3. पद-विचार।
4. वाक्य विचार।
बोली
भाषा का क्षेत्रीय रूप बोली कहलाता है। अर्थात् देश के विभिन्न भागों में बोली जाने वाली भाषा बोली कहलाती है और किसी भी क्षेत्रीय बोली का लिखित रूप में स्थिर साहित्य वहाँ की भाषा कहलाता है।
लिपि
किसी भी भाषा के लिखने की विधि को ‘लिपि’ कहते हैं। हिन्दी और संस्कृत भाषा की लिपि का नाम देवनागरी है। अंग्रेजी भाषा की लिपि ‘रोमन’, उर्दू भाषा की लिपि फारसी, और पंजाबी भाषा की लिपि गुरुमुखी है।
साहित्य
ज्ञान-राशि का संचित कोश ही साहित्य है। साहित्य ही किसी भी देश, जाति और वर्ग को जीवंत रखने का- उसके अतीत रूपों को दर्शाने का एकमात्र साक्ष्य होता है। यह मानव की अनुभूति के विभिन्न पक्षों को स्पष्ट करता है और पाठकों एवं श्रोताओं के ह्रदय में एक अलौकिक अनिर्वचनीय आनंद की अनुभूति उत्पन्न करता है।
2
वर्ण–विचार
परिभाषा-हिन्दी भाषा में प्रयुक्त सबसे छोटी ध्वनि वर्ण कहलाती है। जैसे-अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, क्, ख् आदि।
वर्णमाला-
वर्णों के समुदाय को ही वर्णमाला कहते हैं। हिन्दी वर्णमाला में 44 वर्ण हैं। उच्चारण और प्रयोग के आधार पर हिन्दी वर्णमाला के दो भेद किए गए हैं-
1. स्वर
2. व्यंजन
1.स्वर-
जिन वर्णों का उच्चारण स्वतंत्र रूप से होता हो और जो व्यंजनों के उच्चारण में सहायक हों वे स्वर कहलाते है। ये संख्या में ग्यारह हैं-
अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ।उच्चारण के समय की दृष्टि से स्वर के तीन भेद किए गए हैं-
1. ह्रस्व स्वर।
2. दीर्घ स्वर।
3. प्लुत स्वर।
1.ह्रस्व स्वर-
जिन स्वरों के उच्चारण में कम-से-कम समय लगता हैं उन्हें ह्रस्व स्वर कहते हैं। ये चार हैं- अ, इ, उ, ऋ। इन्हें मूल स्वर भी कहते हैं।
2.दीर्घ स्वर-
जिन स्वरों के उच्चारण में ह्रस्व स्वरों से दुगुना समय लगता है उन्हें दीर्घ स्वर कहते हैं। ये हिन्दी में सात हैं- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ।
विशेष- दीर्घ स्वरों को ह्रस्व स्वरों का दीर्घ रूप नहीं समझना चाहिए। यहाँ दीर्घ शब्द का प्रयोग उच्चारण में लगने वाले समय को आधार मानकर किया गया है।
3.प्लुत स्वर-
जिन स्वरों के उच्चारण में दीर्घ स्वरों से भी अधिक समय लगता है उन्हें प्लुत स्वर कहते हैं। प्रायः इनका प्रयोग दूर से बुलाने में किया जाता है।
मात्राएँ
स्वरों के बदले हुए स्वरूप को मात्रा कहते हैं स्वरों की मात्राएँ निम्नलिखित हैं-
स्वर मात्राएँ शब्द अ × कम
आ ा काम
इ ि किसलय
ई ी खीर
उ ु गुलाब
ऊ ू भूल
ऋ ृ तृण
ए े केश
ऐ ै है
ओ ो चोर
औ ौ चौखट
अ वर्ण (स्वर) की कोई मात्रा नहीं होती। व्यंजनों का अपना स्वरूप निम्नलिखित हैं-
क् च् छ् ज् झ् त् थ् ध् आदि।
अ लगने पर व्यंजनों के नीचे का (हल) चिह्न हट जाता है। तब ये इस प्रकार लिखे जाते हैं-
क च छ ज झ त थ ध आदि।
व्यंजन
जिन वर्णों के पूर्ण उच्चारण के लिए स्वरों की सहायता ली जाती है वे व्यंजन कहलाते हैं। अर्थात व्यंजन बिना स्वरों की सहायता के बोले ही नहीं जा सकते। ये संख्या में 33 हैं। इसके निम्नलिखित तीन भेद हैं-
1. स्पर्श
2. अंतःस्थ
3. ऊष्म
1.स्पर्श-
इन्हें पाँच वर्गों में रखा गया है और हर वर्ग में पाँच-पाँच व्यंजन हैं। हर वर्ग का नाम पहले वर्ग के अनुसार रखा गया है जैसे-
कवर्ग- क् ख् ग् घ् ड़्
चवर्ग- च् छ् ज् झ् ञ्
टवर्ग- ट् ठ् ड् ढ् ण् (ड़् ढ्)
तवर्ग- त् थ् द् ध् न्
पवर्ग- प् फ् ब् भ् म्
2.अंतःस्थ-
ये निम्नलिखित चार हैं-
य् र् ल् व्
3.ऊष्म-
ये निम्नलिखित चार हैं-
श् ष् स् ह्वैसे तो जहाँ भी दो अथवा दो से अधिक व्यंजन मिल जाते हैं वे संयुक्त व्यंजन कहलाते हैं, किन्तु देवनागरी लिपि में संयोग के बाद रूप-परिवर्तन हो जाने के कारण इन तीन को गिनाया गया है। ये दो-दो व्यंजनों से मिलकर बने हैं। जैसे-क्ष=क्+ष अक्षर, ज्ञ=ज्+ञ ज्ञान, त्र=त्+र नक्षत्र कुछ लोग क्ष् त्र् और ज्ञ् को भी हिन्दी वर्णमाला में गिनते हैं, पर ये संयुक्त व्यंजन हैं। अतः इन्हें वर्णमाला में गिनना उचित प्रतीत नहीं होता।
अनुस्वार-
इसका प्रयोग पंचम वर्ण के स्थान पर होता है। इसका चिन्ह (ं) है। जैसे- सम्भव=संभव, सञ्जय=संजय, गड़्गा=गंगा।
विसर्ग-
इसका उच्चारण ह् के समान होता है। इसका चिह्न (:) है। जैसे-अतः, प्रातः।
चंद्रबिंदु-
जब किसी स्वर का उच्चारण नासिका और मुख दोनों से किया जाता है तब उसके ऊपर चंद्रबिंदु (ँ) लगा दिया जाता है।
यह अनुनासिक कहलाता है। जैसे-हँसना, आँख। हिन्दी वर्णमाला में 11 स्वर तथा 33 व्यंजन गिनाए जाते हैं, परन्तु
इनमें ड़्, ढ़् अं तथा अः जोड़ने पर हिन्दी के वर्णों की कुल संख्या 48 हो जाती है।
हलंत-
जब कभी व्यंजन का प्रयोग स्वर से रहित किया जाता है तब उसके नीचे एक तिरछी रेखा (्) लगा दी जाती है। यह रेखा हल कहलाती है। हलयुक्त व्यंजन हलंत वर्ण कहलाता है। जैसे-विद्यां।
वर्णों के उच्चारण-स्थान
मुख के जिस भाग से जिस वर्ण का उच्चारण होता है उसे उस वर्ण का उच्चारण स्थान कहते हैं।
उच्चारण स्थान तालिका
क्रम वर्ण उच्चारण श्रेणी
1. अ आ क् ख् ग् घ् ड़् ह् विसर्ग कंठ और जीभ का निचला भाग कंठस्थ
2. इ ई च् छ् ज् झ् ञ् य् श तालु और जीभ तालव्य
3. ऋ ट् ठ् ड् ढ् ण् ड़् ढ़् र् ष् मूर्धा और जीभ मूर्धन्य
4. त् थ् द् ध् न् ल् स् दाँत और जीभ दंत्य
5. उ ऊ प् फ् ब् भ् म दोनों होंठ ओष्ठ्य
6. ए ऐ कंठ तालु और जीभ कंठतालव्य
7. ओ औ दाँत जीभ और होंठ कंठोष्ठ्य
8. व् दाँत जीभ और होंठ दंतोष्
3
शब्द–विचार
परिभाषा- एक या अधिक वर्णों से बनी हुई स्वतंत्र सार्थक ध्वनि शब्द कहलाता है। जैसे- एक वर्ण से निर्मित शब्द-न (नहीं) व (और) अनेक वर्णों से निर्मित शब्द-कुत्ता, शेर,कमल, नयन, प्रासाद, सर्वव्यापी, परमात्मा।
शब्द–भेद
व्युत्पत्ति (बनावट) के आधार पर शब्द-भेद-
व्युत्पत्ति (बनावट) के आधार पर शब्द के निम्नलिखित तीन भेद हैं-
1. रूढ़
2. यौगिक
3. योगरूढ़
1.रूढ़-
जो शब्द किन्हीं अन्य शब्दों के योग से न बने हों और किसी विशेष अर्थ को प्रकट करते हों तथा जिनके टुकड़ों का कोई अर्थ नहीं होता, वे रूढ़ कहलाते हैं। जैसे-कल, पर। इनमें क, ल, प, र का टुकड़े करने पर कुछ अर्थ नहीं हैं। अतः ये निरर्थक हैं।
2.यौगिक-
जो शब्द कई सार्थक शब्दों के मेल से बने हों,वे यौगिक कहलाते हैं। जैसे-देवालय=देव+आलय, राजपुरुष=राज+पुरुष, हिमालय=हिम+आलय, देवदूत=देव+दूत आदि। ये सभी शब्द दो सार्थक शब्दों के मेल से बने हैं।
3.योगरूढ़-
वे शब्द, जो यौगिक तो हैं, किन्तु सामान्य अर्थ को न प्रकट कर किसी विशेष अर्थ को प्रकट करते हैं, योगरूढ़ कहलाते हैं। जैसे-पंकज, दशानन आदि। पंकज=पंक+ज (कीचड़ में उत्पन्न होने वाला) सामान्य अर्थ में प्रचलित न होकर कमल के अर्थ में रूढ़ हो गया है। अतः पंकज शब्द योगरूढ़ है। इसी प्रकार दश (दस) आनन (मुख) वाला रावण के अर्थ में प्रसिद्ध है।
उत्पत्ति के आधार पर शब्द-भेद-
उत्पत्ति के आधार पर शब्द के निम्नलिखित चार भेद हैं-1. तत्सम- जो शब्द संस्कृत भाषा से हिन्दी में बिना किसी परिवर्तन के ले लिए गए हैं वे तत्सम कहलाते हैं। जैसे-अग्नि, क्षेत्र, वायु, रात्रि, सूर्य आदि।
2. तद्भव- जो शब्द रूप बदलने के बाद संस्कृत से हिन्दी में आए हैं वे तद्भव कहलाते हैं। जैसे-आग (अग्नि), खेत(क्षेत्र), रात (रात्रि), सूरज (सूर्य) आदि।
3. देशज- जो शब्द क्षेत्रीय प्रभाव के कारण परिस्थिति व आवश्यकतानुसार बनकर प्रचलित हो गए हैं वे देशज कहलाते हैं। जैसे-पगड़ी, गाड़ी, थैला, पेट, खटखटाना आदि।
4. विदेशी या विदेशज- विदेशी जातियों के संपर्क से उनकी भाषा के बहुत से शब्द हिन्दी में प्रयुक्त होने लगे हैं। ऐसे शब्द विदेशी अथवा विदेशज कहलाते हैं। जैसे-स्कूल, अनार, आम, कैंची,अचार, पुलिस, टेलीफोन, रिक्शा आदि। ऐसे कुछ विदेशी शब्दों की सूची नीचे दी जा रही है।
अंग्रेजी- कॉलेज, पैंसिल, रेडियो, टेलीविजन, डॉक्टर, लैटरबक्स, पैन, टिकट, मशीन, सिगरेट, साइकिल, बोतल आदि।
फारसी- अनार,चश्मा, जमींदार, दुकान, दरबार, नमक, नमूना, बीमार, बरफ, रूमाल, आदमी, चुगलखोर, गंदगी, चापलूसी आदि।
अरबी- औलाद, अमीर, कत्ल, कलम, कानून, खत, फकीर, रिश्वत, औरत, कैदी, मालिक, गरीब आदि।
तुर्की- कैंची, चाकू, तोप, बारूद, लाश, दारोगा, बहादुर आदि।
पुर्तगाली- अचार, आलपीन, कारतूस, गमला, चाबी, तिजोरी, तौलिया, फीता, साबुन, तंबाकू, कॉफी, कमीज आदि।
फ्रांसीसी- पुलिस, कार्टून, इंजीनियर, कर्फ्यू, बिगुल आदि।
चीनी- तूफान, लीची, चाय, पटाखा आदि।
यूनानी- टेलीफोन, टेलीग्राफ, ऐटम, डेल्टा आदि।
जापानी- रिक्शा आदि।
प्रयोग के आधार पर शब्द-भेद
प्रयोग के आधार पर शब्द के निम्नलिखित आठ भेद है-
1. संज्ञा
2. सर्वनाम
3. विशेषण
4. क्रिया
5. क्रिया-विशेषण
6. संबंधबोधक
7. समुच्चयबोधक
8. विस्मयादिबोधकइन उपर्युक्त आठ प्रकार के शब्दों को भी विकार की दृष्टि से दो भागों में बाँटा जा सकता है-
1. विकारी
2. अविकारी
1.विकारी शब्द-
जिन शब्दों का रूप-परिवर्तन होता रहता है वे विकारी शब्द कहलाते हैं। जैसे-कुत्ता, कुत्ते, कुत्तों, मैं मुझे,हमें अच्छा, अच्छे खाता है, खाती है, खाते हैं। इनमें संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया विकारी शब्द हैं।
2.अविकारी शब्द-
जिन शब्दों के रूप में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता है वे अविकारी शब्द कहलाते हैं। जैसे-यहाँ, किन्तु, नित्य, और, हे अरे आदि। इनमें क्रिया-विशेषण, संबंधबोधक, समुच्चयबोधक और विस्मयादिबोधक आदि हैं।
अर्थ की दृष्टि से शब्द-भेद
अर्थ की दृष्टि से शब्द के दो भेद हैं-
1. सार्थक
2. निरर्थक
1.सार्थक शब्द-
जिन शब्दों का कुछ-न-कुछ अर्थ हो वे शब्द सार्थक शब्द कहलाते हैं। जैसे-रोटी, पानी, ममता, डंडा आदि।
2.निरर्थक शब्द-
जिन शब्दों का कोई अर्थ नहीं होता है वे शब्द निरर्थक कहलाते हैं। जैसे-रोटी-वोटी, पानी-वानी, डंडा-वंडा इनमें वोटी, वानी, वंडा आदि निरर्थक शब्द हैं।
विशेष- निरर्थक शब्दों पर व्याकरण में कोई विचार नहीं किया जाता है।
4
पद-विचार
सार्थक वर्ण-समूह शब्द कहलाता है, पर जब इसका प्रयोग वाक्य में होता है तो वह स्वतंत्र नहीं रहता बल्कि व्याकरण के नियमों में बँध जाता है और प्रायः इसका रूप भी बदल जाता है। जब कोई शब्द वाक्य में प्रयुक्त होता है तो उसे शब्द न कहकर पद कहा जाता है।
हिन्दी में पद पाँच प्रकार के होते हैं-
1. संज्ञा
2. सर्वनाम
3. विशेषण
4. क्रिया
5. अव्यय
1.संज्ञा-
किसी व्यक्ति, स्थान, वस्तु आदि तथा नाम के गुण, धर्म, स्वभाव का बोध कराने वाले शब्द संज्ञा कहलाते हैं। जैसे-श्याम, आम, मिठास, हाथी आदि।
संज्ञा के प्रकार- संज्ञा के तीन भेद हैं-
1. व्यक्तिवाचक संज्ञा।
2. जातिवाचक संज्ञा।
3. भाववाचक संज्ञा।
1.व्यक्तिवाचक संज्ञा-
जिस संज्ञा शब्द से किसी विशेष, व्यक्ति, प्राणी, वस्तु अथवा स्थान का बोध हो उसे व्यक्तिवाचक संज्ञा कहते हैं। जैसे-जयप्रकाश नारायण, श्रीकृष्ण, रामायण, ताजमहल, कुतुबमीनार, लालकिला हिमालय आदि।
2.जातिवाचक संज्ञा-
जिस संज्ञा शब्द से उसकी संपूर्ण जाति का बोध हो उसे जातिवाचक संज्ञा कहते हैं। जैसे-मनुष्य, नदी, नगर, पर्वत, पशु, पक्षी, लड़का, कुत्ता, गाय, घोड़ा, भैंस, बकरी, नारी, गाँव आदि।
3.भाववाचक संज्ञा-
जिस संज्ञा शब्द से पदार्थों की अवस्था, गुण-दोष, धर्म आदि का बोध हो उसे भाववाचक संज्ञा कहते हैं। जैसे-बुढ़ापा, मिठास, बचपन, मोटापा, चढ़ाई, थकावट आदि।
विशेष वक्तव्य- कुछ विद्वान अंग्रेजी व्याकरण के प्रभाव के कारण संज्ञा शब्द के दो भेद और बतलाते हैं-
1. समुदायवाचक संज्ञा।
2. द्रव्यवाचक संज्ञा।
1.समुदायवाचक संज्ञा-
जिन संज्ञा शब्दों से व्यक्तियों, वस्तुओं आदि के समूह का बोध हो उन्हें समुदायवाचक संज्ञा कहते हैं। जैसे-सभा, कक्षा, सेना, भीड़, पुस्तकालय दल आदि।
2.द्रव्यवाचक संज्ञा-
जिन संज्ञा-शब्दों से किसी धातु, द्रव्य आदि पदार्थों का बोध हो उन्हें द्रव्यवाचक संज्ञा कहते हैं। जैसे-घी, तेल, सोना, चाँदी,पीतल, चावल, गेहूँ, कोयला, लोहा आदि।इस प्रकार संज्ञा के पाँच भेद हो गए, किन्तु अनेक विद्वान समुदायवाचक और द्रव्यवाचक संज्ञाओं को जातिवाचक संज्ञा के अंतर्गत ही मानते हैं, और यही उचित भी प्रतीत होता है।
भाववाचक संज्ञा बनाना- भाववाचक संज्ञाएँ चार प्रकार के शब्दों से बनती हैं। जैसे-
1.जातिवाचक संज्ञाओं से-
दास दासता
पंडित पांडित्य
बंधु बंधुत्वक्षत्रिय क्षत्रियत्व
पुरुष पुरुषत्व
प्रभु प्रभुता
पशु पशुता,पशुत्व
ब्राह्मण ब्राह्मणत्व
मित्र मित्रता
बालक बालकपन
बच्चा बचपन
नारी नारीत्व
2.सर्वनाम से-
अपना अपनापन, अपनत्व निज निजत्व,निजता
पराया परायापन
स्व स्वत्व
सर्व सर्वस्व
अहं अहंकार
मम ममत्व,ममता
3.विशेषण से-
मीठा मिठास
चतुर चातुर्य, चतुराई
मधुर माधुर्य
सुंदर सौंदर्य, सुंदरता
निर्बल निर्बलता सफेद सफेदी
हरा हरियाली
सफल सफलता
प्रवीण प्रवीणता
मैला मैल
निपुण निपुणता
खट्टा खटास
4.क्रिया से-
खेलना खेल
थकना थकावट
लिखना लेख, लिखाई
हँसना हँसी
लेना-देना लेन-देन
पढ़ना पढ़ाई
मिलना मेल
चढ़ना चढ़ाई
मुसकाना मुसकान
कमाना कमाई
उतरना उतराई
उड़ना उड़ानरहना-सहना रहन-सहन
देखना-भालना देख-भाल
अध्याय 5
संज्ञा के विकारक तत्व
जिन तत्वों के आधार पर संज्ञा (संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण) का रूपांतर होता है वे विकारक तत्व कहलाते हैं।
वाक्य में शब्दों की स्थिति के आधार पर ही उनमें विकार आते हैं। यह विकार लिंग, वचन और कारक के कारण ही होता है। जैसे-लड़का शब्द के चारों रूप- 1.लड़का, 2.लड़के, 3.लड़कों, 4.लड़को-केवल वचन और कारकों के कारण बनते हैं।
लिंग- जिस चिह्न से यह बोध होता हो कि अमुक शब्द पुरुष जाति का है अथवा स्त्री जाति का वह लिंग कहलाता है।
परिभाषा- शब्द के जिस रूप से किसी व्यक्ति, वस्तु आदि के पुरुष जाति अथवा स्त्री जाति के होने का ज्ञान हो उसे लिंग कहते हैं। जैसे-लड़का, लड़की, नर, नारी आदि। इनमें ‘लड़का’ और ‘नर’ पुल्लिंग तथा लड़की और ‘नारी’ स्त्रीलिंग हैं।
हिन्दी में लिंग के दो भेद हैं-
1. पुल्लिंग।
2. स्त्रीलिंग।
1.पुल्लिंग-
जिन संज्ञा शब्दों से पुरुष जाति का बोध हो अथवा जो शब्द पुरुष जाति के अंतर्गत माने जाते हैं वे पुल्लिंग हैं। जैसे-कुत्ता, लड़का, पेड़, सिंह, बैल, घर आदि।
2.स्त्रीलिंग-
जिन संज्ञा शब्दों से स्त्री जाति का बोध हो अथवा जो शब्द स्त्री जाति के अंतर्गत माने जाते हैं वे स्त्रीलिंग हैं। जैसे-गाय, घड़ी, लड़की, कुरसी, छड़ी, नारी आदि।
पुल्लिंग की पहचान-
1. आ, आव, पा, पन न ये प्रत्यय जिन शब्दों के अंत में हों वे प्रायः पुल्लिंग होते हैं। जैसे- मोटा, चढ़ाव, बुढ़ापा, लड़कपन लेन-देन।
2. पर्वत, मास, वार और कुछ ग्रहों के नाम पुल्लिंग होते हैं जैसे-विंध्याचल, हिमालय, वैशाख, सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, राहु, केतु (ग्रह)।
3. पेड़ों के नाम पुल्लिंग होते हैं। जैसे-पीपल, नीम, आम, शीशम, सागौन, जामुन, बरगद आदि।
4. अनाजों के नाम पुल्लिंग होते हैं। जैसे-बाजरा, गेहूँ, चावल, चना, मटर, जौ, उड़द आदि।
5. द्रव पदार्थों के नाम पुल्लिंग होते हैं। जैसे-पानी, सोना, ताँबा, लोहा, घी, तेल आदि।
6. रत्नों के नाम पुल्लिंग होते हैं। जैसे-हीरा, पन्ना, मूँगा, मोती माणिक आदि।
7. देह के अवयवों के नाम पुल्लिंग होते हैं। जैसे-सिर, मस्तक, दाँत, मुख, कान, गला, हाथ, पाँव, होंठ, तालु, नख, रोम आदि।
8. जल,स्थान और भूमंडल के भागों के नाम पुल्लिंग होते हैं। जैसे-समुद्र, भारत, देश, नगर, द्वीप, आकाश, पाताल, घर, सरोवर आदि।
9. वर्णमाला के अनेक अक्षरों के नाम पुल्लिंग होते हैं। जैसे-अ,उ,ए,ओ,क,ख,ग,घ, च,छ,य,र,ल,व,श आदि।
स्त्रीलिंग की पहचान-
1. जिन संज्ञा शब्दों के अंत में ख होते है, वे स्त्रीलिंग कहलाते हैं। जैसे-ईख, भूख, चोख, राख, कोख, लाख, देखरेख आदि।
2. जिन भाववाचक संज्ञाओं के अंत में ट, वट, या हट होता है, वे स्त्रीलिंग कहलाती हैं। जैसे-झंझट, आहट, चिकनाहट, बनावट, सजावट आदि।
3. अनुस्वारांत, ईकारांत, ऊकारांत, तकारांत, सकारांत संज्ञाएँ स्त्रीलिंग कहलाती है। जैसे-रोटी, टोपी, नदी, चिट्ठी, उदासी, रात, बात, छत, भीत, लू, बालू, दारू, सरसों, खड़ाऊँ, प्यास, वास, साँस आदि।
4. भाषा, बोली और लिपियों के नाम स्त्रीलिंग होते हैं। जैसे-हिन्दी, संस्कृत, देवनागरी, पहाड़ी, तेलुगु पंजाबी गुरुमुखी।
5. जिन शब्दों के अंत में इया आता है वे स्त्रीलिंग होते हैं। जैसे-कुटिया, खटिया, चिड़िया आदि।
6. नदियों के नाम स्त्रीलिंग होते हैं। जैसे-गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती आदि।
7. तारीखों और तिथियों के नाम स्त्रीलिंग होते हैं। जैसे-पहली, दूसरी, प्रतिपदा, पूर्णिमा आदि।
8. पृथ्वी ग्रह स्त्रीलिंग होते हैं।
9. नक्षत्रों के नाम स्त्रीलिंग होते हैं। जैसे-अश्विनी, भरणी, रोहिणी आदि।
शब्दों का लिंग-परिवर्तन
प्रत्यय पुल्लिंग स्त्रीलिंग
ई घोड़ा घोड़ी
देव देवी
दादा दादी
लड़का लड़की
ब्राह्मण ब्राह्मणी
नर नारी
बकरा बकरी
इय चूहा चुहिया
चिड़ा चिड़िया
बेटा बिटिया
गुड्डा गुड़िया
लोटा लुटिया
इन माली मालिन
कहार कहारिन
सुनार सुनारिन
लुहार लुहारिन
धोबी धोबिन
नी मोर मोरनी
हाथी हाथिन
सिंह सिंहनी
आनी नौकर नौकरानी
चौधरी चौधरानी
देवर देवरानी
सेठ सेठानी
जेठ जेठानी
आइन पंडित पंडिताइन
ठाकुर ठाकुराइन
आ बाल बाला
सुत सुता
छात्र छात्रा
शिष्य शिष्या
अक को इका करके पाठक पाठिका
अध्यापक अध्यापिका
बालक बालिका
लेखक लेखिका
सेवक सेविका
इनी (इणी) तपस्वी तपस्विनी
हितकारी हितकारिनी
स्वामी स्वामिनी
परोपकारी परोपकारिनी
कुछ विशेष शब्द जो स्त्रीलिंग में बिलकुल ही बदल जाते हैं।
पुल्लिंग स्त्रीलिंग
पिता माता
भाई भाभी
नर मादा
राजा रानी
ससुर सास
सम्राट सम्राज्ञी
पुरुष स्त्री
बैल गाय
युवक युवती
विशेष वक्तव्य- जो प्राणिवाचक सदा शब्द ही स्त्रीलिंग हैं अथवा जो सदा ही पुल्लिंग हैं उनके पुल्लिंग अथवा स्त्रीलिंग जताने के लिए उनके साथ ‘नर’ व ‘मादा’ शब्द लगा देते हैं। जैसे-
नित्य स्त्रीलिंग पुल्लिंग
मक्खी नर मक्खी
कोयल नर कोयल
गिलहरी नर गिलहरी
मैना नर मैना
तितली नर तितली
बाज मादा बाज
खटमल मादा खटमल
चील नर चील
कछुआ नर कछुआ
कौआ नर कौआ
भेड़िया मादा भेड़िया
उल्लू मादा उल्लू
मच्छर मादा मच्छर
अध्याय 6
वचन
परिभाषा-शब्द के जिस रूप से उसके एक अथवा अनेक होने का बोध हो उसे वचन कहते हैं।
हिन्दी में वचन दो होते हैं-
1. एकवचन
2. बहुवचन
एकवचन-
शब्द के जिस रूप से एक ही वस्तु का बोध हो, उसे एकवचन कहते हैं। जैसे-लड़का, गाय, सिपाही, बच्चा, कपड़ा, माता, माला, पुस्तक, स्त्री, टोपी बंदर, मोर आदि।
बहुवचन-
शब्द के जिस रूप से अनेकता का बोध हो उसे बहुवचन कहते हैं। जैसे-लड़के, गायें, कपड़े, टोपियाँ, मालाएँ, माताएँ, पुस्तकें, वधुएँ, गुरुजन, रोटियाँ, स्त्रियाँ, लताएँ, बेटे आदि।
एकवचन के स्थान पर बहुवचन का प्रयोग
(क) आदर के लिए भी बहुवचन का प्रयोग होता है। जैसे-
(1) भीष्म पितामह तो ब्रह्मचारी थे।
(2) गुरुजी आज नहीं आये।
(3) शिवाजी सच्चे वीर थे।
(ख) बड़प्पन दर्शाने के लिए कुछ लोग वह के स्थान पर वे और मैं के स्थान हम का प्रयोग करते हैं जैसे-
(1) मालिक ने कर्मचारी से कहा, हम मीटिंग में जा रहे हैं।
(2) आज गुरुजी आए तो वे प्रसन्न दिखाई दे रहे थे।
(ग) केश, रोम, अश्रु, प्राण, दर्शन, लोग, दर्शक, समाचार, दाम, होश, भाग्य आदि ऐसे शब्द हैं जिनका प्रयोग बहुधा बहुवचन में ही होता है। जैसे-
(1) तुम्हारे केश बड़े सुन्दर हैं।
(2) लोग कहते हैं।
बहुवचन के स्थान पर एकवचन का प्रयोग
(क) तू एकवचन है जिसका बहुवचन है तुम किन्तु सभ्य लोग आजकल लोक-व्यवहार में एकवचन के लिए तुम का ही प्रयोग करते हैं जैसे-
(1) मित्र, तुम कब आए।
(2) क्या तुमने खाना खा लिया।
(ख) वर्ग, वृंद, दल, गण, जाति आदि शब्द अनेकता को प्रकट करने वाले हैं, किन्तु इनका व्यवहार एकवचन के समान होता है। जैसे-
(1) सैनिक दल शत्रु का दमन कर रहा है।
(2) स्त्री जाति संघर्ष कर रही है।
(ग) जातिवाचक शब्दों का प्रयोग एकवचन में किया जा सकता है। जैसे-
(1) सोना बहुमूल्य वस्तु है।
(2) मुंबई का आम स्वादिष्ट होता है।
बहुवचन बनाने के नियम
(1) अकारांत स्त्रीलिंग शब्दों के अंतिम अ को एँ कर देने से शब्द बहुवचन में बदल जाते हैं। जैसे-
एकवचन बहुवचन
आँख आँखें
बहन बहनें
पुस्तक पुस्तकें
सड़क सड़के
गाय गायें
बात बातें
(2) आकारांत पुल्लिंग शब्दों के अंतिम ‘आ’ को ‘ए’ कर देने से शब्द बहुवचन में बदल जाते हैं। जैसे-
एकवचन बहुवचन एकवचन बहुवचन
घोड़ा घोड़े कौआ कौए
कुत्ता कुत्ते गधा गधे
केला केले बेटा बेटे
(3) आकारांत स्त्रीलिंग शब्दों के अंतिम ‘आ’ के आगे ‘एँ’ लगा देने से शब्द बहुवचन में बदल जाते हैं। जैसे-
एकवचन बहुवचन एकवचन बहुवचन
कन्या कन्याएँ अध्यापिका अध्यापिकाएँ
कला कलाएँ माता माताएँ
कविता कविताएँ लता लताएँ
(4) इकारांत अथवा ईकारांत स्त्रीलिंग शब्दों के अंत में ‘याँ’ लगा देने से और दीर्घ ई को ह्रस्व इ कर देने से शब्द बहुवचन में बदल जाते हैं। जैसे-
एकवचन बहुवचन एकवचन बहुवचन
बुद्धि बुद्धियाँ गति गतियाँ
कली कलियाँ नीति नीतियाँ
कॉपी कॉपियाँ लड़की लड़कियाँ
थाली थालियाँ नारी नारियाँ
(5) जिन स्त्रीलिंग शब्दों के अंत में या है उनके अंतिम आ को आँ कर देने से वे बहुवचन बन जाते हैं। जैसे-
एकवचन बहुवचन एकवचन बहुवचन
गुड़िया गुड़ियाँ बिटिया बिटियाँ
चुहिया चुहियाँ कुतिया कुतियाँ
चिड़िया चिड़ियाँ खटिया खटियाँ
बुढ़िया बुढ़ियाँ गैया गैयाँ
(6) कुछ शब्दों में अंतिम उ, ऊ और औ के साथ एँ लगा देते हैं और दीर्घ ऊ के साथन पर ह्रस्व उ हो जाता है। जैसे-
एकवचन बहुवचन एकवचन बहुवचन
गौ गौएँ बहू बहूएँ
वधू वधूएँ वस्तु वस्तुएँ
धेनु धेनुएँ धातु धातुएँ
(7) दल, वृंद, वर्ग, जन लोग, गण आदि शब्द जोड़कर भी शब्दों का बहुवचन बना देते हैं। जैसे-
एकवचन बहुवचन एकवचन बहुवचन
अध्यापक अध्यापकवृंद मित्र मित्रवर्ग
विद्यार्थी विद्यार्थीगण सेना सेनादल
आप आप लोग गुरु गुरुजन
श्रोता श्रोताजन गरीब गरीब लोग
(8) कुछ शब्दों के रूप ‘एकवचन’ और ‘बहुवचन’ दोनो में समान होते हैं। जैसे-
एकवचन बहुवचन एकवचन बहुवचन
क्षमा क्षमा नेता नेता
जल जल प्रेम प्रेम
गिरि गिरि क्रोध क्रोध
राजा राजा पानी पानी
विशेष- (1) जब संज्ञाओं के साथ ने, को, से आदि परसर्ग लगे होते हैं तो संज्ञाओं का बहुवचन बनाने के लिए उनमें ‘ओ’ लगाया जाता है। जैसे-
एकवचन बहुवचन एकवचन बहुवचन
लड़के को बुलाओ लड़को को बुलाओ बच्चे ने गाना गाया बच्चों ने गाना गाया
नदी का जल ठंडा है नदियों का जल ठंडा है आदमी से पूछ लो आदमियों से पूछ लो
(2) संबोधन में ‘ओ’ जोड़कर बहुवचन बनाया जाता है। जैसे-
बच्चों ! ध्यान से सुनो। भाइयों ! मेहनत करो। बहनो ! अपना कर्तव्य निभाओ।
अध्याय 7
कारक
परिभाषा-संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से उसका सीधा संबंध क्रिया के साथ ज्ञात हो वह कारक कहलाता है। जैसे-गीता ने दूध पीया। इस वाक्य में ‘गीता’ पीना क्रिया का कर्ता है और दूध उसका कर्म। अतः ‘गीता’ कर्ता कारक है और ‘दूध’ कर्म कारक।
कारक विभक्ति- संज्ञा अथवा सर्वनाम शब्दों के बाद ‘ने, को, से, के लिए’, आदि जो चिह्न लगते हैं वे चिह्न कारक विभक्ति कहलाते हैं।हिन्दी में आठ कारक होते हैं। उन्हें विभक्ति चिह्नों सहित नीचे देखा जा सकता है-
कारक विभक्ति चिह्न (परसर्ग)
1. कर्ता ने
2. कर्म को
3. करण से, के साथ, के द्वारा
4. संप्रदान के लिए, को
5. अपादान से (पृथक)
6. संबंध का, के, की
7. अधिकरण में, पर
8. संबोधन हे ! हरे !
कारक चिह्न स्मरण करने के लिए इस पद की रचना की गई हैं-
कर्ता ने अरु कर्म को, करण रीति से जान।
संप्रदान को, के लिए, अपादान से मान।।
का, के, की, संबंध हैं, अधिकरणादिक में मान।
रे ! हे ! हो ! संबोधन, मित्र धरहु यह ध्यान।।
विशेष-कर्ता से अधिकरण तक विभक्ति चिह्न (परसर्ग) शब्दों के अंत में लगाए जाते हैं, किन्तु संबोधन कारक के चिह्न-हे, रे, आदि प्रायः शब्द से पूर्व लगाए जाते हैं।
1.कर्ता कारक-
जिस रूप से क्रिया (कार्य) के करने वाले का बोध होता है वह ‘कर्ता’ कारक कहलाता है। इसका विभक्ति-चिह्न ‘ने’ है। इस ‘ने’ चिह्न का वर्तमानकाल और भविष्यकाल में प्रयोग नहीं होता है। इसका सकर्मक धातुओं के साथ भूतकाल में प्रयोग होता है। जैसे- 1.राम ने रावण को मारा। 2.लड़की स्कूल जाती है।पहले वाक्य में क्रिया का कर्ता राम है। इसमें ‘ने’ कर्ता कारक का विभक्ति-चिह्न है। इस वाक्य में ‘मारा’ भूतकाल की क्रिया है। ‘ने’ का प्रयोग प्रायः भूतकाल में होता है। दूसरे वाक्य में वर्तमानकाल की क्रिया का कर्ता लड़की है। इसमें ‘ने’ विभक्ति का प्रयोग नहीं हुआ है।विशेष- (1) भूतकाल में अकर्मक क्रिया के कर्ता के साथ भी ने परसर्ग (विभक्ति चिह्न) नहीं लगता है। जैसे-वह हँसा।
(2) वर्तमानकाल व भविष्यतकाल की सकर्मक क्रिया के कर्ता के साथ ने परसर्ग का प्रयोग नहीं होता है। जैसे-वह फल खाता है। वह फल खाएगा।
(3) कभी-कभी कर्ता के साथ ‘को’ तथा ‘स’ का प्रयोग भी किया जाता है। जैसे-
(अ) बालक को सो जाना चाहिए। (आ) सीता से पुस्तक पढ़ी गई।
(इ) रोगी से चला भी नहीं जाता। (ई) उससे शब्द लिखा नहीं गया।
2.कर्म कारक-
क्रिया के कार्य का फल जिस पर पड़ता है, वह कर्म कारक कहलाता है। इसका विभक्ति-चिह्न ‘को’ है। यह चिह्न भी बहुत-से स्थानों पर नहीं लगता। जैसे- 1. मोहन ने साँप को मारा। 2. लड़की ने पत्र लिखा। पहले वाक्य में ‘मारने’ की क्रिया का फल साँप पर पड़ा है। अतः साँप कर्म कारक है। इसके साथ परसर्ग ‘को’ लगा है।
दूसरे वाक्य में ‘लिखने’ की क्रिया का फल पत्र पर पड़ा। अतः पत्र कर्म कारक है। इसमें कर्म कारक का विभक्ति चिह्न ‘को’ नहीं लगा।
3.करण कारक-
संज्ञा आदि शब्दों के जिस रूप से क्रिया के करने के साधन का बोध हो अर्थात् जिसकी सहायता से कार्य संपन्न हो वह करण कारक कहलाता है। इसके विभक्ति-चिह्न ‘से’ के ‘द्वारा’ है। जैसे- 1.अर्जुन ने जयद्रथ को बाण से मारा। 2.बालक गेंद से खेल रहे है।
पहले वाक्य में कर्ता अर्जुन ने मारने का कार्य ‘बाण’ से किया। अतः ‘बाण से’ करण कारक है। दूसरे वाक्य में कर्ता बालक खेलने का कार्य ‘गेंद से’ कर रहे हैं। अतः ‘गेंद से’ करण कारक है।
4.संप्रदान कारक-
संप्रदान का अर्थ है-देना। अर्थात कर्ता जिसके लिए कुछ कार्य करता है, अथवा जिसे कुछ देता है उसे व्यक्त करने वाले रूप को संप्रदान कारक कहते हैं। इसके विभक्ति चिह्न ‘के लिए’ को हैं।
1.स्वास्थ्य के लिए सूर्य को नमस्कार करो। 2.गुरुजी को फल दो।
इन दो वाक्यों में ‘स्वास्थ्य के लिए’ और ‘गुरुजी को’ संप्रदान कारक हैं।
5.अपादान कारक-
संज्ञा के जिस रूप से एक वस्तु का दूसरी से अलग होना पाया जाए वह अपादान कारक कहलाता है। इसका विभक्ति-चिह्न ‘से’ है। जैसे- 1.बच्चा छत से गिर पड़ा। 2.संगीता घोड़े से गिर पड़ी।
इन दोनों वाक्यों में ‘छत से’ और घोड़े ‘से’ गिरने में अलग होना प्रकट होता है। अतः घोड़े से और छत से अपादान कारक हैं।
6.संबंध कारक-
शब्द के जिस रूप से किसी एक वस्तु का दूसरी वस्तु से संबंध प्रकट हो वह संबंध कारक कहलाता है। इसका विभक्ति चिह्न ‘का’, ‘के’, ‘की’, ‘रा’, ‘रे’, ‘री’ है। जैसे- 1.यह राधेश्याम का बेटा है। 2.यह कमला की गाय है।
इन दोनों वाक्यों में ‘राधेश्याम का बेटे’ से और ‘कमला का’ गाय से संबंध प्रकट हो रहा है। अतः यहाँ संबंध कारक है।
7.अधिकरण कारक-
शब्द के जिस रूप से क्रिया के आधार का बोध होता है उसे अधिकरण कारक कहते हैं। इसके विभक्ति-चिह्न ‘में’, ‘पर’ हैं। जैसे- 1.भँवरा फूलों पर मँडरा रहा है। 2.कमरे में टी.वी. रखा है।
इन दोनों वाक्यों में ‘फूलों पर’ और ‘कमरे में’ अधिकरण कारक है।
8.संबोधन कारक-
जिससे किसी को बुलाने अथवा सचेत करने का भाव प्रकट हो उसे संबोधन कारक कहते है और संबोधन चिह्न (!) लगाया जाता है। जैसे- 1.अरे भैया ! क्यों रो रहे हो ? 2.हे गोपाल ! यहाँ आओ।
इन वाक्यों में ‘अरे भैया’ और ‘हे गोपाल’ ! संबोधन कारक है।
अध्याय 8
सर्वनाम
सर्वनाम-संज्ञा के स्थान पर प्रयुक्त होने वाले शब्द को सर्वनाम कहते है। संज्ञा की पुनरुक्ति को दूर करने के लिए ही सर्वनाम का प्रयोग किया जाता है। जैसे-मैं, हम, तू, तुम, वह, यह, आप, कौन, कोई, जो आदि।
सर्वनाम के भेद- सर्वनाम के छह भेद हैं-
1. पुरुषवाचक सर्वनाम।
2. निश्चयवाचक सर्वनाम।
3. अनिश्चयवाचक सर्वनाम।
4. संबंधवाचक सर्वनाम।
5. प्रश्नवाचक सर्वनाम।
6. निजवाचक सर्वनाम।
1.पुरुषवाचक सर्वनाम-
जिस सर्वनाम का प्रयोग वक्ता या लेखक स्वयं अपने लिए अथवा श्रोता या पाठक के लिए अथवा किसी अन्य के लिए करता है वह पुरुषवाचक सर्वनाम कहलाता है। पुरुषवाचक सर्वनाम तीन प्रकार के होते हैं-
(1) उत्तम पुरुषवाचक सर्वनाम- जिस सर्वनाम का प्रयोग बोलने वाला अपने लिए करे, उसे उत्तम पुरुषवाचक सर्वनाम कहते हैं। जैसे-मैं, हम, मुझे, हमारा आदि।
(2) मध्यम पुरुषवाचक सर्वनाम- जिस सर्वनाम का प्रयोग बोलने वाला सुनने वाले के लिए करे, उसे मध्यम पुरुषवाचक सर्वनाम कहते हैं। जैसे-तू, तुम,तुझे, तुम्हारा आदि।
(3) अन्य पुरुषवाचक सर्वनाम- जिस सर्वनाम का प्रयोग बोलने वाला सुनने वाले के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष के लिए करे उसे अन्य पुरुषवाचक सर्वनाम कहते हैं। जैसे-वह, वे, उसने, यह, ये, इसने, आदि।
2.निश्चयवाचक सर्वनाम-
जो सर्वनाम किसी व्यक्ति वस्तु आदि की ओर निश्चयपूर्वक संकेत करें वे निश्चयवाचक सर्वनाम कहलाते हैं। इनमें ‘यह’, ‘वह’, ‘वे’ सर्वनाम शब्द किसी विशेष व्यक्ति आदि का निश्चयपूर्वक बोध करा रहे हैं, अतः ये निश्चयवाचक सर्वनाम है।
3.अनिश्चयवाचक सर्वनाम-
जिस सर्वनाम शब्द के द्वारा किसी निश्चित व्यक्ति अथवा वस्तु का बोध न हो वे अनिश्चयवाचक सर्वनाम कहलाते हैं। इनमें ‘कोई’ और ‘कुछ’ सर्वनाम शब्दों से किसी विशेष व्यक्ति अथवा वस्तु का निश्चय नहीं हो रहा है। अतः ऐसे शब्द अनिश्चयवाचक सर्वनाम कहलाते हैं।
4.संबंधवाचक सर्वनाम-
परस्पर एक-दूसरी बात का संबंध बतलाने के लिए जिन सर्वनामों का प्रयोग होता है उन्हें संबंधवाचक सर्वनाम कहते हैं। इनमें ‘जो’, ‘वह’, ‘जिसकी’, ‘उसकी’, ‘जैसा’, ‘वैसा’-ये दो-दो शब्द परस्पर संबंध का बोध करा रहे हैं। ऐसे शब्द संबंधवाचक सर्वनाम कहलाते हैं।
5.प्रश्नवाचक सर्वनाम-
जो सर्वनाम संज्ञा शब्दों के स्थान पर तो आते ही है, किन्तु वाक्य को प्रश्नवाचक भी बनाते हैं वे प्रश्नवाचक सर्वनाम कहलाते हैं। जैसे-क्या, कौन आदि। इनमें ‘क्या’ और ‘कौन’ शब्द प्रश्नवाचक सर्वनाम हैं, क्योंकि इन सर्वनामों के द्वारा वाक्य प्रश्नवाचक बन जाते हैं।
6.निजवाचक सर्वनाम-
जहाँ अपने लिए ‘आप’ शब्द ‘अपना’ शब्द अथवा ‘अपने’ ‘आप’ शब्द का प्रयोग हो वहाँ निजवाचक सर्वनाम होता है। इनमें ‘अपना’ और ‘आप’ शब्द उत्तम, पुरुष मध्यम पुरुष और अन्य पुरुष के (स्वयं का) अपने आप का बोध करा रहे हैं। ऐसे शब्द निजवाचक सर्वनाम कहलाते हैं।
विशेष-जहाँ केवल ‘आप’ शब्द का प्रयोग श्रोता के लिए हो वहाँ यह आदर-सूचक मध्यम पुरुष होता है और जहाँ ‘आप’ शब्द का प्रयोग अपने लिए हो वहाँ निजवाचक होता है।
सर्वनाम शब्दों के विशेष प्रयोग
(1) आप, वे, ये, हम, तुम शब्द बहुवचन के रूप में हैं, किन्तु आदर प्रकट करने के लिए इनका प्रयोग एक व्यक्ति के लिए भी होता है।
(2) ‘आप’ शब्द स्वयं के अर्थ में भी प्रयुक्त हो जाता है। जैसे-मैं यह कार्य आप ही कर लूँगा।
अध्याय 9
विशेषण
विशेषण की परिभाषा- संज्ञा अथवा सर्वनाम शब्दों की विशेषता (गुण, दोष, संख्या, परिमाण आदि) बताने वाले शब्द ‘विशेषण’ कहलाते हैं। जैसे-बड़ा, काला, लंबा, दयालु, भारी, सुन्दर, कायर, टेढ़ा-मेढ़ा, एक, दो आदि।
विशेष्य- जिस संज्ञा अथवा सर्वनाम शब्द की विशेषता बताई जाए वह विशेष्य कहलाता है। यथा- गीता सुन्दर है। इसमें ‘सुन्दर’ विशेषण है और ‘गीता’ विशेष्य है। विशेषण शब्द विशेष्य से पूर्व भी आते हैं और उसके बाद भी।
पूर्व में, जैसे- (1) थोड़ा-सा जल लाओ। (2) एक मीटर कपड़ा ले आना।
बाद में, जैसे- (1) यह रास्ता लंबा है। (2) खीरा कड़वा है।
विशेषण के भेद- विशेषण के चार भेद हैं-
1. गुणवाचक।
2. परिमाणवाचक।
3. संख्यावाचक।
4. संकेतवाचक अथवा सार्वनामिक।
1.गुणवाचक विशेषण-
जिन विशेषण शब्दों से संज्ञा अथवा सर्वनाम शब्दों के गुण-दोष का बोध हो वे गुणवाचक विशेषण कहलाते हैं। जैसे-
(1) भाव- अच्छा, बुरा, कायर, वीर, डरपोक आदि।
(2) रंग- लाल, हरा, पीला, सफेद, काला, चमकीला, फीका आदि।
(3) दशा- पतला, मोटा, सूखा, गाढ़ा, पिघला, भारी, गीला, गरीब, अमीर, रोगी, स्वस्थ, पालतू आदि।
(4) आकार- गोल, सुडौल, नुकीला, समान, पोला आदि।
(5) समय- अगला, पिछला, दोपहर, संध्या, सवेरा आदि।
(6) स्थान- भीतरी, बाहरी, पंजाबी, जापानी, पुराना, ताजा, आगामी आदि।
(7) गुण- भला, बुरा, सुन्दर, मीठा, खट्टा, दानी,सच, झूठ, सीधा आदि।
(8) दिशा- उत्तरी, दक्षिणी, पूर्वी, पश्चिमी आदि।
2.परिमाणवाचक विशेषण-
जिन विशेषण शब्दों से संज्ञा या सर्वनाम की मात्रा अथवा नाप-तोल का ज्ञान हो वे परिमाणवाचक विशेषण कहलाते हैं।
परिमाणवाचक विशेषण के दो उपभेद है-
(1) निश्चित परिमाणवाचक विशेषण- जिन विशेषण शब्दों से वस्तु की निश्चित मात्रा का ज्ञान हो। जैसे-
(क) मेरे सूट में साढ़े तीन मीटर कपड़ा लगेगा।
(ख) दस किलो चीनी ले आओ।
(ग) दो लिटर दूध गरम करो।
(2) अनिश्चित परिमाणवाचक विशेषण- जिन विशेषण शब्दों से वस्तु की अनिश्चित मात्रा का ज्ञान हो। जैसे-
(क) थोड़ी-सी नमकीन वस्तु ले आओ।
(ख) कुछ आम दे दो।
(ग) थोड़ा-सा दूध गरम कर दो।
3.संख्यावाचक विशेषण-
जिन विशेषण शब्दों से संज्ञा या सर्वनाम की संख्या का बोध हो वे संख्यावाचक विशेषण कहलाते हैं। जैसे-एक, दो, द्वितीय, दुगुना, चौगुना, पाँचों आदि।
संख्यावाचक विशेषण के दो उपभेद हैं-
(1) निश्चित संख्यावाचक विशेषण- जिन विशेषण शब्दों से निश्चित संख्या का बोध हो। जैसे-दो पुस्तकें मेरे लिए ले आना।
निश्चित संख्यावाचक के निम्नलिखित चार भेद हैं-
(क) गणवाचक- जिन शब्दों के द्वारा गिनती का बोध हो। जैसे-
(1) एक लड़का स्कूल जा रहा है।
(2) पच्चीस रुपये दीजिए।
(3) कल मेरे यहाँ दो मित्र आएँगे।
(4) चार आम लाओ।
(ख) क्रमवाचक- जिन शब्दों के द्वारा संख्या के क्रम का बोध हो। जैसे-
(1) पहला लड़का यहाँ आए।
(2) दूसरा लड़का वहाँ बैठे।
(3) राम कक्षा में प्रथम रहा।
(4) श्याम द्वितीय श्रेणी में पास हुआ है।
(ग) आवृत्तिवाचक- जिन शब्दों के द्वारा केवल आवृत्ति का बोध हो। जैसे-
(1) मोहन तुमसे चौगुना काम करता है।
(2) गोपाल तुमसे दुगुना मोटा है।
(घ) समुदायवाचक- जिन शब्दों के द्वारा केवल सामूहिक संख्या का बोध हो। जैसे-
(1) तुम तीनों को जाना पड़ेगा।
(2) यहाँ से चारों चले जाओ।
(2) अनिश्चित संख्यावाचक विशेषण- जिन विशेषण शब्दों से निश्चित संख्या का बोध न हो। जैसे-कुछ बच्चे पार्क में खेल रहे हैं।
(4) संकेतवाचक (निर्देशक) विशेषण-
जो सर्वनाम संकेत द्वारा संज्ञा या सर्वनाम की विशेषता बतलाते हैं वे संकेतवाचक विशेषण कहलाते हैं।
विशेष-क्योंकि संकेतवाचक विशेषण सर्वनाम शब्दों से बनते हैं, अतः ये सार्वनामिक विशेषण कहलाते हैं। इन्हें निर्देशक भी कहते हैं।
(1) परिमाणवाचक विशेषण और संख्यावाचक विशेषण में अंतर- जिन वस्तुओं की नाप-तोल की जा सके उनके वाचक शब्द परिमाणवाचक विशेषण कहलाते हैं। जैसे-‘कुछ दूध लाओ’। इसमें ‘कुछ’ शब्द तोल के लिए आया है। इसलिए यह परिमाणवाचक विशेषण है। 2.जिन वस्तुओं की गिनती की जा सके उनके वाचक शब्द संख्यावाचक विशेषण कहलाते हैं। जैसे-कुछ बच्चे इधर आओ। यहाँ पर ‘कुछ’ बच्चों की गिनती के लिए आया है। इसलिए यह संख्यावाचक विशेषण है। परिमाणवाचक विशेषणों के बाद द्रव्य अथवा पदार्थवाचक संज्ञाएँ आएँगी जबकि संख्यावाचक विशेषणों के बाद जातिवाचक संज्ञाएँ आती हैं।
(2) सर्वनाम और सार्वनामिक विशेषण में अंतर- जिस शब्द का प्रयोग संज्ञा शब्द के स्थान पर हो उसे सर्वनाम कहते हैं। जैसे-वह मुंबई गया। इस वाक्य में वह सर्वनाम है। जिस शब्द का प्रयोग संज्ञा से पूर्व अथवा बाद में विशेषण के रूप में किया गया हो उसे सार्वनामिक विशेषण कहते हैं। जैसे-वह रथ आ रहा है। इसमें वह शब्द रथ का विशेषण है। अतः यह सार्वनामिक विशेषण है।
विशेषण की अवस्थाएँ-
विशेषण शब्द किसी संज्ञा या सर्वनाम की विशेषता बतलाते हैं। विशेषता बताई जाने वाली वस्तुओं के गुण-दोष कम-ज्यादा होते हैं। गुण-दोषों के इस कम-ज्यादा होने को तुलनात्मक ढंग से ही जाना जा सकता है। तुलना की दृष्टि से विशेषणों की निम्नलिखित तीन अवस्थाएँ होती हैं-
(1) मूलावस्था
(2) उत्तरावस्था
(3) उत्तमावस्था
(
1) मूलावस्था-
मूलावस्था में विशेषण का तुलनात्मक रूप नहीं होता है। वह केवल सामान्य विशेषता ही प्रकट करता है। जैसे- 1.सावित्री सुंदर लड़की है। 2.सुरेश अच्छा लड़का है। 3.सूर्य तेजस्वी है।
(2) उत्तरावस्था-
जब दो व्यक्तियों या वस्तुओं के गुण-दोषों की तुलना की जाती है तब विशेषण उत्तरावस्था में प्रयुक्त होता है। जैसे- 1.रवीन्द्र चेतन से अधिक बुद्धिमान है। 2.सविता रमा की अपेक्षा अधिक सुन्दर है।
(3) उत्तमावस्था-
उत्तमावस्था में दो से अधिक व्यक्तियों एवं वस्तुओं की तुलना करके किसी एक को सबसे अधिक अथवा सबसे कम बताया गया है। जैसे- 1.पंजाब में अधिकतम अन्न होता है। 2.संदीप निकृष्टतम बालक है।
विशेष-केवल गुणवाचक एवं अनिश्चित संख्यावाचक तथा निश्चित परिमाणवाचक विशेषणों की ही ये तुलनात्मक अवस्थाएँ होती हैं, अन्य विशेषणों की नहीं।
अवस्थाओं के रूप-
(1) अधिक और सबसे अधिक शब्दों का प्रयोग करके उत्तरावस्था और उत्तमावस्था के रूप बनाए जा सकते हैं। जैसे-
मूलावस्था उत्तरावस्था उत्तमावस्था
अच्छी अधिक अच्छी सबसे अच्छी
चतुर अधिक चतुर सबसे अधिक चतुर
बुद्धिमान अधिक बुद्धिमान सबसे अधिक बुद्धिमान
बलवान अधिक बलवान सबसे अधिक बलवान
इसी प्रकार दूसरे विशेषण शब्दों के रूप भी बनाए जा सकते हैं।
(2) तत्सम शब्दों में मूलावस्था में विशेषण का मूल रूप, उत्तरावस्था में ‘तर’ और उत्तमावस्था में ‘तम’ का प्रयोग होता है। जैसे-
मूलावस्था उत्तरावस्था उत्तमावस्था
उच्च उच्चतर उच्चतम
कठोर कठोरतर कठोरतम
गुरु गुरुतर गुरुतम
महान, महानतर महत्तर, महानतम महत्तम
न्यून न्यूनतर न्यनूतम
लघु लघुतर लघुतम
तीव्र तीव्रतर तीव्रतम
विशाल विशालतर विशालतम
उत्कृष्ट उत्कृष्टर उत्कृट्ठतम
सुंदर सुंदरतर सुंदरतम
मधुर मधुरतर मधुतरतम
विशेषणों की रचना-
कुछ शब्द मूलरूप में ही विशेषण होते हैं, किन्तु कुछ विशेषण शब्दों की रचना संज्ञा, सर्वनाम एवं क्रिया शब्दों से की जाती है-
(1) संज्ञा से विशेषण बनाना-
प्रत्यय संज्ञा विशेषण संज्ञा विशेषण
क अंश आंशिक धर्म धार्मिक
अलंकार आलंकारिक नीति नैतिक
अर्थ आर्थिक दिन दैनिक
इतिहास ऐतिहासिक देव दैविक
इत अंक अंकित कुसुम कुसुमित
सुरभि सुरभित ध्वनि ध्वनित
क्षुधा क्षुधित तरंग तरंगित
इल जटा जटिल पंक पंकिल
फेन फेनिल उर्मि उर्मिल
इम स्वर्ण स्वर्णिम रक्त रक्तिम
ई रोग रोगी भोग भोगी
ईन,ईण कुल कुलीन ग्राम ग्रामीण
ईय आत्मा आत्मीय जाति जातीय
आलु श्रद्धा श्रद्धालु ईर्ष्या ईर्ष्यालु
वी मनस मनस्वी तपस तपस्वी
मय सुख सुखमय दुख दुखमय
वान रूप रूपवान गुण गुणवान
वती(स्त्री) गुण गुणवती पुत्र पुत्रवती
मान बुद्धि बुद्धिमान श्री श्रीमान
मती (स्त्री) श्री श्रीमती बुद्धि बुद्धिमती
रत धर्म धर्मरत कर्म कर्मरत
स्थ समीप समीपस्थ देह देहस्थ
निष्ठ धर्म धर्मनिष्ठ कर्म कर्मनिष्ठ
(2) सर्वनाम से विशेषण बनाना-
सर्वनाम विशेषण सर्वनाम विशेषण
वह वैसा यह ऐसा
(3) क्रिया से विशेषण बनाना-
क्रिया विशेषण क्रिया विशेषण
पत पतित पूज पूजनीय
पठ पठित वंद वंदनीय
भागना भागने वाला पालना पालने वाला
अध्याय 10
क्रिया
क्रिया- जिस शब्द अथवा शब्द-समूह के द्वारा किसी कार्य के होने अथवा करने का बोध हो उसे क्रिया कहते हैं। जैसे-
(1) गीता नाच रही है।
(2) बच्चा दूध पी रहा है।
(3) राकेश कॉलेज जा रहा है।
(4) गौरव बुद्धिमान है।
(5) शिवाजी बहुत वीर थे।
इनमें ‘नाच रही है’, ‘पी रहा है’, ‘जा रहा है’ शब्द कार्य-व्यापार का बोध करा रहे हैं। जबकि ‘है’, ‘थे’ शब्द होने का। इन सभी से किसी कार्य के करने अथवा होने का बोध हो रहा है। अतः ये क्रियाएँ हैं।
धातु-
क्रिया का मूल रूप धातु कहलाता है। जैसे-लिख, पढ़, जा, खा, गा, रो, पा आदि। इन्हीं धातुओं से लिखता, पढ़ता, आदि क्रियाएँ बनती हैं।
क्रिया के भेद- क्रिया के दो भेद हैं-
(1) अकर्मक क्रिया।
(2) सकर्मक क्रिया।
1.अकर्मक क्रिया-
जिन क्रियाओं का फल सीधा कर्ता पर ही पड़े वे अकर्मक क्रिया कहलाती हैं। ऐसी अकर्मक क्रियाओं को कर्म की आवश्यकता नहीं होती। अकर्मक क्रियाओं के अन्य उदाहरण हैं-
(1) गौरव रोता है।
(2) साँप रेंगता है।
(3) रेलगाड़ी चलती है।
कुछ अकर्मक क्रियाएँ- लजाना, होना, बढ़ना, सोना, खेलना, अकड़ना, डरना, बैठना, हँसना, उगना, जीना, दौड़ना, रोना, ठहरना, चमकना, डोलना, मरना, घटना, फाँदना, जागना, बरसना, उछलना, कूदना आदि।
2.सकर्मक क्रिया-
जिन क्रियाओं का फल (कर्ता को छोड़कर) कर्म पर पड़ता है वे सकर्मक क्रिया कहलाती हैं। इन क्रियाओं में कर्म का होना आवश्यक हैं, सकर्मक क्रियाओं के अन्य उदाहरण हैं-
(1) मैं लेख लिखता हूँ।
(2) रमेश मिठाई खाता है।
(3) सविता फल लाती है।
(4) भँवरा फूलों का रस पीता है।
3.द्विकर्मक क्रिया- जिन क्रियाओं के दो कर्म होते हैं, वे द्विकर्मक क्रियाएँ कहलाती हैं। द्विकर्मक क्रियाओं के उदाहरण हैं-
(1) मैंने श्याम को पुस्तक दी।
(2) सीता ने राधा को रुपये दिए।
ऊपर के वाक्यों में ‘देना’ क्रिया के दो कर्म हैं। अतः देना द्विकर्मक क्रिया हैं।
प्रयोग की दृष्टि से क्रिया के भेद-
प्रयोग की दृष्टि से क्रिया के निम्नलिखित पाँच भेद हैं-
1.सामान्य क्रिया- जहाँ केवल एक क्रिया का प्रयोग होता है वह सामान्य क्रिया कहलाती है। जैसे-
1. आप आए।
2.वह नहाया आदि।
2.संयुक्त क्रिया- जहाँ दो अथवा अधिक क्रियाओं का साथ-साथ प्रयोग हो वे संयुक्त क्रिया कहलाती हैं। जैसे-
1.सविता महाभारत पढ़ने लगी।
2.वह खा चुका।
3.नामधातु क्रिया- संज्ञा, सर्वनाम अथवा विशेषण शब्दों से बने क्रियापद नामधातु क्रिया कहलाते हैं। जैसे-हथियाना, शरमाना, अपनाना, लजाना, चिकनाना, झुठलाना आदि।
4.प्रेरणार्थक क्रिया- जिस क्रिया से पता चले कि कर्ता स्वयं कार्य को न करके किसी अन्य को उस कार्य को करने की प्रेरणा देता है वह प्रेरणार्थक क्रिया कहलाती है। ऐसी क्रियाओं के दो कर्ता होते हैं- (1) प्रेरक कर्ता- प्रेरणा प्रदान करने वाला। (2) प्रेरित कर्ता-प्रेरणा लेने वाला। जैसे-श्यामा राधा से पत्र लिखवाती है। इसमें वास्तव में पत्र तो राधा लिखती है, किन्तु उसको लिखने की प्रेरणा देती है श्यामा। अतः ‘लिखवाना’ क्रिया प्रेरणार्थक क्रिया है। इस वाक्य में श्यामा प्रेरक कर्ता है और राधा प्रेरित कर्ता।
5.पूर्वकालिक क्रिया- किसी क्रिया से पूर्व यदि कोई दूसरी क्रिया प्रयुक्त हो तो वह पूर्वकालिक क्रिया कहलाती है। जैसे- मैं अभी सोकर उठा हूँ। इसमें ‘उठा हूँ’ क्रिया से पूर्व ‘सोकर’ क्रिया का प्रयोग हुआ है। अतः ‘सोकर’ पूर्वकालिक क्रिया है।
विशेष- पूर्वकालिक क्रिया या तो क्रिया के सामान्य रूप में प्रयुक्त होती है अथवा धातु के अंत में ‘कर’ अथवा ‘करके’ लगा देने से पूर्वकालिक क्रिया बन जाती है। जैसे-
(1) बच्चा दूध पीते ही सो गया।
(2) लड़कियाँ पुस्तकें पढ़कर जाएँगी।
अपूर्ण क्रिया-
कई बार वाक्य में क्रिया के होते हुए भी उसका अर्थ स्पष्ट नहीं हो पाता। ऐसी क्रियाएँ अपूर्ण क्रिया कहलाती हैं। जैसे-गाँधीजी थे। तुम हो। ये क्रियाएँ अपूर्ण क्रियाएँ है। अब इन्हीं वाक्यों को फिर से पढ़िए-
गांधीजी राष्ट्रपिता थे। तुम बुद्धिमान हो।
इन वाक्यों में क्रमशः ‘राष्ट्रपिता’ और ‘बुद्धिमान’ शब्दों के प्रयोग से स्पष्टता आ गई। ये सभी शब्द ‘पूरक’ हैं।
अपूर्ण क्रिया के अर्थ को पूरा करने के लिए जिन शब्दों का प्रयोग किया जाता है उन्हें पूरक कहते हैं।